संस्मरण
एक समय था जब हमारा कोई घर नहीं था. हम सब दस भाई बहन एक साथ अपने माता पिता के मकान में उनके साथ रहते थे. इतना बड़ा परिवार था तो समान भी अधिक लगता था. जेठ के महीने में आम का अचार डला करता था. 5-10 किलो खुर्जा वाला बड़ा मर्तबान भर कर. साल भर जो चलाना होता था.
कच्चे आम बाज़ार से खरीद कर अा जाते थे. उन्हें धोकर सरौता से आमों के आठ आठ टुकड़े कर उसमें नमक मसाला मर्तबान में भर और सरसों का तेल डालकर धूप में रख दिया जाता था. कुछ दिनों में खाने के लिए तैयार हो जाता था.
धीरे धीरे हम सब बड़े होते गए बहनें ब्याह गई. भाई भी नौकरियों में जाकर शादी होकर अलग अलग हो गए. सबसे छोटा दिल्ली शिफ्ट हो गया. हम और पत्नी रह गए उस पुराने मकान में. हमारी मजबूरी थी, उसी शहर में नौकरी थी. हमें विरासत में वोही आम काटने का सरौता और अचार रखने वाला मर्तबान मिला. कई सालों आम का अचार पत्नी बनाती रही. सरौते से आम काटती रही और मर्तबान में रखती गई.
एक वक़्त आया हम भी उस मकान और शहर छोड़ कर आगरा अा गए. अब न आम आते हैं न आचार बनता है.
मां बाप के समय आचारों की वैरायटी हुआ करती थी क्योंकि खाने वाले भी थे. अब दो प्राणी क्या बनाए क्या खाएं. अब तो दिहाड़ी मजदूर से हो गए बाज़ार से ले आओ थोड़ा जब खत्म हो जाए तो फिर ले आओ. सत्य तो यह है कि अब खाया ही कहां जाता है.
*ब्रजेश*