कविता

जिंदगी

 

कभी अल्हड़पन से हँसती खिलखिलाती
कभी विरहन सी ये आँसू बहाती
बज उठते हैं संगीत कभी दिल में यादों के
कभी अलसाई धूप सी कुनमुनाती

जिंदगी के होते हैं अनगिनत पाँव
कभी धूप तो कभी लगती है छाँव
हजारों पैरों से दौड़ी भागी चली जाती है
इसीलिए तो यह बेवफा कहलाती है

जिंदगी भर बचता रहा जिससे
आखिर में वही पनाह देती है
मौत ही असली महबूबा है
अपने आगोश में समा लेती है

राजकुमार कांदु
मौलिक / स्वरचित

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।