गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

जब दीवारें घर की, सुनने लगती हैं
बुनियादों की जड़ भी, हिलने लगती हैं।
नाज़ुक छत है, टिकी हुई विश्वासों पर
सब ना थामे, तो वह गिरने लगती है।
पूजा-घर में रक्खी मूरत रोती हैं
साख बुजुर्गों की जो, गिरने लगती है।
सदा खोलकर रखना, कमरों की खिड़की
बंद कपाटें घुटन, उगलने लगती हैं।
खिंच जाती हैं, जब रेखाएँ आँगन में
तब बदली भी दुख की, घिरने लगती है।
तुलसी का बिरवाँ भी, आँगन मे रखो
माँ की छाया, खुशियाँ भरने लगती हैं।
जब सींचीं जाती है रिश्तों की क्यारी
फुलवारी सपनों की खिलने लगती है।
‘शरद’ नेह का दीप जले गर चौखट पर
घर में जग की खुशियाँ मिलने लगती हैं।

— शरद सुनेरी