तेरा कीआ मीठा लागे, हरि नाम पदारथ नानक मागे
(गुरु अर्जुन देव जयंती पर विशेष)
सिख गुरुओं ने धर्म और मानवता की रक्षा के लिए सदैव अपना बलिदान दिया है अनेक ऐसी मिसालें पेश की हैं जो आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा स्त्रोत हैं । इतिहास के पन्ने जहाँ सिख गुरुओं की शिक्षाओं द्वारा स्वर्णिम अक्षरों से लिखे गये हैं वहीं इन गुरुओं ने अपना रक्त देकर इन्हें सुर्ख भी किया है। सिखों के पांचवें गुरु अर्जुन देव ऐसे ही महापुरुष हैं जिनका नाम आज भी लोगों के हृदय को अपने गुरु के प्रति अगाध श्रद्धा एवं गर्व से भर देता है।
इनका जन्म सिख धर्म के चौथे गुरु रामदास जी व माता भानी के घर अमृतसर शहर में हुआ था। गुरूजी को मानवीय आदर्श, धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा, सहृदयता, कर्तव्यनिष्ठता माँ के दूध के साथ ही मिले थे। इनकी तेजस्विता एवं ऋतम्भरा प्रज्ञा को देखते हुए इन्हें १५८१ में पांचवें गुरु की उपाधि दी गई। आध्यात्मिक जगत में गुरु जी को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। इन्हें ब्रह्मज्ञानी भी कहा जाता है।इन्होंने अपना पूरा जीवन धर्म और लोगों की सेवा के लिए न्योछावर कर दिया था। गुरु अर्जुन देव जी शांत स्वभाव और कुशाग्र बुद्धि वाले थे साथ ही उन्हें गुरूबाणी कीर्तन करने में गहरी रूचि थी । इन्होंने सिख संस्कृति को घर-घर तक पहुँचाने के लिए अथाह प्रयत्न किए।
गुरु अर्जुन देव ने श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी का संपादन का काम किया। इसमें बिना किसी भेदभाव के इन्होंने कई विद्वानों और भगतों की बाणी संकलित की। गणना की दृष्टि से श्री गुरुग्रंथ साहिब में सर्वाधिक बाणी पंचम गुरु अर्थात श्री अर्जुन देव जी की ही है। आदि ग्रंथ साहिब में सिख गुरुओं के अलावा अन्य सूफी संतों के ज्ञान का भी समावेश किया गया था।
इन्होंने ‘अमृत सरोवर का निर्माण कराकर उसमें ‘हरमंदिर साहब (स्वर्ण मंदिर ) का निर्माण कराया। जिसकी नींव सूफी संत मियां मीर के हाथों से रखवाई। गुरु दरबार की सही निर्माण व्यवस्था में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। १५९० ई में तरनतारन के सरोवर की पक्की व्यवस्था भी उनके प्रयास से हुई।
श्री अर्जुन देव एक ऐसे दृणनिश्चयी धर्मध्वज रक्षक महापुरुष थे जिन्होंने अपने धर्म की अस्मिता गरिमा एवं गौरव के प्रचार प्रसार में अपना संपूर्ण जीवन आहूत कर दिया। इन्होंने समाज के प्रत्येक पक्ष को अपने उत्कृष्ट विचारों से आंदोलित किया साथ ही धर्म सम्बंधित बाह्यआडंबरों एवं पाखंड का पुरजोर विरोध किया।
धर्म गुरु किसी कन्दरा गुफा में नहीं बल्कि समाज के बीच में आकर उसकी बुराईयों का दमन कर मानव मूल्यों का संवर्धन करने वाले होते है इस तथ्य को गुरु अर्जुन देव ने अपने जीवन में पूर्णत उतारा। गुरु अर्जुन देव द्वारा मानवता के उच्च आदर्शों और मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए किसी सिख द्वारा दी गई यह पहली शहादत मानी जाती है। यही कारण है कि उन्हें शहीदों का सरताज कहा जाता है।
जहाँगीर के आदेश पर ३० मई १६०६ ईस्वी को श्री गुरू अर्जुन देव जी को लाहौर में भीषण गर्मी के दौरान (यासा व सियासत) कानून के तहत लोहे के गर्म तवे पर बिठाकर शहीद कर दिया गया। यासा व सियासत के अनुसार किसी व्यक्ति का रक्त धरती पर गिराए बिना उसे यातनाएं देकर शहीद कर दिया जाता है। गुरू अर्जुन देव जी के शीश पर गर्म-गर्म रेत डालने पर जब गुरूजी का शरीर बुरी तरह से जल गया तो उन्हें ठंडे पानी वाले रावी नदी में नहाने के लिए भेजा गया जहाँ गुरूजी का शरीर रावी में विलुप्त हो गया।
आज भी उनकी शिक्षाएं और उनके द्वारा सिक्ख धर्म के लिए गए महान कार्यों के कारण वे हम सब के हृदय में श्रद्धा एवं विश्वास के अविचल आसान पर विद्यमान हैं।
— पंकज कुमार शर्मा ‘प्रखर’