कविता

दहेज

मेरे घर लिया एक बिटिया ने जन्म।
खिल उठा मेरे दिल का सूखा चमन।
धीरे-धीरे वह बड़ी होने लगी।
मीठी बातों से मन को भाने लगी।
प्यार देता रहा उसे बेटे की तरह,
न देता था उसको दुःख भी जरा।
पढ़ लिख बिटिया बड़ी हो गई थी अब।
मैं करने लगा शादी की फ़िक्र तब।
जब भी कहीं शादी का जिक्र चलाता था।
बस सामने एक ही मुद्दा आता था।
चाहत थी सबको अच्छे दहेज की।
मैं था गरीब न थी रकम दहेज की।
इसी तरह समय गुजरता रहा।
दहेज का चक्र मेरे सामने चलता रहा।
बिटिया मुझे दुःखी देख दुख सहती रही।
मैं न करूंगी शादी ऐसा कहती रही।
दुनिया की रस्म तो निभानी थी।
कब तक न करता शादी बिटिया तो बिहानी थी।
घर बेचकर  कर दिया किसी तरह कन्यादान।
दहेज है अभिशाप अब गया था जान।
मन में एक संकल्प ठान लिया।
मिटाना है दहेज प्रथा यह मान लिया।
अपने बेटे की शादी में न लूंगा दहेज।
जो दे दे अपनी बेटी वो सबसे बड़ा दहेज।
हम जब अपने घर से यह प्रथा चलाएंगे।
दहेज प्रथा की रस्म से तभी मुक्ति पाएंगे।
— शहनाज़ बानो

शहनाज़ बानो

वरिष्ठ शिक्षिका व कवयित्री, स0अ0,उच्च प्रा0वि0-भौंरी, चित्रकूट-उ० प्र०