कविता

अनोखे ख़्वाब

बड़े अनोखे बन गये मेरे ख़्वाब,
उन्हें मुकम्मल करने को दिल करता है,
जहां देखूं दिखते हैं मुझे ख़्वाब,
उन्हें मुकम्मल करने को दिल करता है।

खुली आँखों से भी देखे हैं मैंने ख़्वाब,
अरमानों से भर बैठी हूँ दिल के कोने में,
आसमान में उड़ने को जब पंख फैलाती हूँ,
उन्हें मुकम्मल करने को दिल करता है।

बन के तितली फूलों पे बैठती हूँ ख़्वाबों के संग,
ढलती शाम में जुगनू बन जाती हूँ अपनों के संग,
रात की मधुर बेला में जब मचलती हूँ,
उन ख़्वाबों को मुकम्मल करने को दिल करता है।

बन कर चाँद की रोशनी की लहर में,
एक चकोर की तरह मंडराती हूँ,
हाले को तोड़ कर, जाने को चाँद के पास,
अपने ख़्वाबों को मुकम्मल करने को दिल करता है।

रात की बेला में परियों की तरह,
करवटों में सिमटते हुए भोर की तरह,
आफ़ताब की शफ़क़ में चमकते हुए,
इन्हीं ख़्वाबों में इठलाने को दिल करता है।

पथरीली डगर पे भी न रुकें मेरे क़दम,
काँटों भरी राहों में भी चलते रहें मेरे क़दम,
ये जो बड़े अनोखे बन गये मेरे ख़्वाब,
बस.. इन को मुकम्मल करने को दिल करता है।
— सीमा राठी

सीमा राठी

सीमा राठी द्वारा श्री रामचंद्र राठी श्री डूंगरगढ़ (राज.) दिल्ली (निवासी)