भाषा-साहित्य

दूजा नहीं कबीर

पंद्रहवीं सदी में महान धार्मिक संत कबीर ऐसे काल में अवतरित हुए जब इस्लाम व सनातन धर्म के अनुयायियों में संघर्ष चरम पर था। कबीर ने मध्य मार्ग चुनकर दोनों धर्मों की विसंगतियों पर प्रहार कर यह समझाने का प्रयास किया कि धर्म का लक्ष्य एक ही होता है। यह कबीर कट्टर राम भक्त थे परंतु कबीर के राम विष्णु के अवतार नहीं थे अपितु निर्गुण निराकार थे। राम के प्रति प्रेम और समर्पण की भावना में उनकी भाषा मधुर वह गंभीर है। उनकी दृष्टि में प्रेम विश्व मानव के साथ रागात्मक अनुबंध है। उन्होंने प्रेम पूर्ण भक्ति की अनुभूति का दर्शन कराया है। अविधा माया का अस्तित्व बना रहता है। उसके साथ हम जब चाहे अपने संबंध जोड़ सकते हैं।
कहै कबीर राम ल्यौ लाई, धर रही माया काहू खाई।
प्रेम और भक्ति मार्ग पर चलने के लिए कबीर को जगत के स्थूल कार्यों का त्याग करना पड़ा। तभी वह परम चेतना में प्रवेश पा सके। कबीर कहते हैं
तनना बुनना तज्या कबीर, राम नाम लिख लिया शरीर,
जब लग भरौं नली का बेह, तब लग टूटैं राम स्नेह।।
ठाढी रोवैं कबीर की माई, ए लरिका क्यूं जीवैं खुदाई।
कहै कबीर सुनहुं री माया, पूरणहारा त्रिभुवन राई।।
कबीर का व्यक्तिगत आध्यात्मिक अनुभव, विचारों की दिव्यता जिसे वह सरल शब्दों में व्यक्त करते थे, ही उनकी वाणी से जब फूटते थे तब उनके शब्द ही कविता बन जाते थे–
सुनो मेरे भाई,
वही जानता है, जो प्रेम करता है।
प्रिय के प्रति अगर तुममें वह प्रेम की लगन नहीं है
तो व्यर्थ है यह शरीर को सजाना संवारना
और आंखों में अंजन लगाना।
कबीर कहते हैं
बिरह भुजंगम तन बसै, मंत्र न  लागे कोई।
राम बियोगी ना जिवै, जिवै तो बौरा होई।।
कबीर रूढ़िवादी कर्मकांड और अंधविश्वासों पर प्रहार करते हैं। वह परमात्मा के साथ सहज मिलन पर जोर देते हैं।
मैं अपनी आंख नहीं मूंदता, अपने कान बंद नहीं करता,
मैं अपनी काया को दंडित नहीं करता। मैं अपनी खुली आंख से देखता और मुस्कुराता हूं,
उसकी सुंदरता सब और देखता हूं।।
कबीर की दिव्य धारणा कर्म प्रधान है। एक सूफी कवि जलालुद्दीन रूमी (12 वीं सदी) ने लिखा
दिये अलग-अलग है, पर प्रकाश एक ही है,
वह कहीं परे से आता है।
अगर तू दीपक की ओर देखता रहे तो तू खो जाएगा,
क्योंकि उसी में से संख्या और अनेकता का आभास उभरता है।
प्रकाश की ओर दृष्टि लगा, और तू मुक्त हो जाएगा,
इस ससीम शरीर में निहित दुई से,
ओ तू अस्तित्व का सार- निसार है।
कबीर का रहस्यवाद भी वेदांती या सूफी की तरह ही है। उनके लिए ससिम और असीम का कोई भेद नहीं था। कबीर कहते हैं–
ऐसा लो नहिं तैसा लो, केहि बिधि कहौं गंभीरा लो।
भीतर कहूं तो जगमग लाजे, बाहर कहूं तो झूठा लो।।
बाहर भीतर सकल निरन्तर, चित्त अचित्त दोउ मीठा लो।
दृष्टि न मुष्टि परगट अगोचर, बातन कहा न जाए लो।
कबीर कहते हैं कि ब्रह्म मूल तत्व है। वह देश काल परिणामों से परे है। वह मुक्त है और अंतिम है वह। वह किसी दिशा में नहीं है और सर्व व्यापक है–
बायें न दाहिनैं आगे न पीछू।
अरध न उरद रूप नहीं कीछ।।
माय न बाप आव नहीं जावा।।
ना बहू जण्यां न को वहि जावा।।
वो है तैसा वो ही जानैं
ओहीआहि आहि नहीं आनैं।।
कबीर कहते हैं कि सुख की चाबी ज्ञानवान होने में है। हम दुख को सुख की अनुभूति समझते हैं यही हमारा अज्ञान है। ज्ञान प्राप्त करना अत्यंत कठिन वह कष्टप्रद है। अज्ञान स्वभाविक है, दुनिया उसी में अपने को सुखी समझती है–
जिन्य कुछ जांण्यां नहीं, तिन्ह सुख नीदडी बिहाई।
मैरी अबूझी दूझिया, पूरी पडी बलाइ।।
कबीर आगे कहते हैं कि जीवन में संशय की पूर्ण निवृत्ति के बिना परम चैतन्य का दर्शन दुर्लभ है। जिस प्रकार गधा चंदन के भार को लिए हुए भी चंदन की सुगंध से अनभिज्ञ रहता है, उसी प्रकार अज्ञानी भी स्थूल शरीर लिए चल रहा है
जस खर चंदन लादै भारा, परिमल बांस न जानै गंवाया,
कहंहि कबीर खोजै असमाना, सो न मिला जिहि जाय गुमाना।
कपड़े बुनना कबीर की जीविका थी। उनकी प्रसिद्ध रचनाओं में से एक भजन है जिसे महात्मा गांधी भी नित्य गाया करते थे
झीनी झीनी बीनी चदरिया
काहै का ताना काहै की भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया।
इंगला- पिंगला ताना भरनी, सुखमन तार से बुनी चदरिया।
आठ कंवल दल चरखा डौले, पांच तत्व गुण तीनी चदरिया।
साईं को सियत मास दस लागै, ठोक ठोक के बीनी चदरिया।
सो चादर सूर मुनि ओढ़ी, ओढ़ी के मैली कीनी चदरिया।
दास कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों के त्यों धर दीनी चदरिया।।
कबीर के जन्म के बारे में अनेक भ्रांतियां हैं। मौलवी गुलाम सरवर अपने “खजीनात उल आसफिया” में कबीर का जन्म वर्ष 1594 बताते हैं। कबीर चरित बोध में उनका जन्म वर्ष 1395 बताया गया है। यह भी कहा जाता है कि कबीर सिकंदर लोदी के समकालीन थे। सिकंदर लोदी 1494 में वाराणसी आया था। कबीर के गुरु रामानंद जी थे उनका जन्म वर्ष 1298 बताया जाता है। बाद में कुछ विद्वानों ने अनेक खोज के बाद कबीर का जन्म वर्ष 1398 निर्धारित किया।
कबीर के चिंतन दर्शन की थाह पाना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। कबीर आस्तिक- नास्तिक, धर्म- अधर्म, पाप- पुण्य सब पर खुलकर बोलते हैं। वह निर्गुण राम की उपासना करते हैं तो आडम्बर पर चोट भी करते हैं। मानवता को प्रथम मानने वाले कबीर के लिए यही कहा जा सकता है—
दूजा नहीं कबीर जगत में, आडम्बर पर चोट करे,
घर की चाकी पूजन कहता, मूर्ति पूजन विरोध करे।
मांस मदिरा कहे त्यागना, हिंसा मानवता पर भारी,
लिए लुकाठी खड़ा आंगना, जोर-जोर से शोर करे।
कभी कहत क्या अल्लाह बहरा, सुबह शाम चिल्लाते हो,
कभी बढायी ढाढी पर, कटी मूंछ पर भी चोट करे।
दूजा नहीं कबीर अभी तक, जो बुराईयों पर घात कर सके। कबीर कल भी प्रासंगिक थे आज भी हैं और कल भी रहेंगे।
== डॉ अ कीर्ति वर्द्धन