सामाजिक

वर्तमान स्थिति

वर्तमान स्थिति आध्यात्मिक दुखदाई है | संतान अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए अपने ही माता-पिता का सहारा लेती है | बड़े ही दुख की बात है कि आजकल हर घर में हर किसी की पीड़ा का कारण स्वयं उनकी संतान बन चुकी है|

“खड़ी बोली मांवड़ी ,मीठा बोले लोग”

यह एक राजस्थानी मुहावरा है | अर्थात कि माता-पिता हमें कुछ कह दे तो हमें वह खारा लगता है या गलत लगता है | और यदि कोई बाहर वाला मनुष्य कह दे तो हमें मीठा लगता है | माता-पिता सदैव अपनी संतान के हित के लिए ही कटु वचनों का प्रयोग करते हैं | वह सब कुछ उनके भले के लिए ही करते हैं | पर मनुष्य ही नहीं समझ पाता और अगर कोई बाहरी व्यक्ति मीठे बोल-बोलकर आप को अपने वश में कर ले तो ऐसे व्यक्ति से हमेशा दूर ही रहना चाहिए | क्योंकि उससे ज्यादा हानि आपको कोई पूछा ही नहीं सकता | उनकी मधुर वाणी कब छल में परिवर्तित होगी पता भी नहीं चलेगा |

एक पिता ही है जो अपनी सक्ति प्रकाशित करते हैं | ताकि उनकी संतान कभी भी कोई अनुचित कार्य ना कर दे | जिस तरह से एक कुम्हार मटकी बनाता है | ठीक उसी प्रकार माता-पिता अपने बच्चों का विकास बनाते हैं | मटकी बनाते समय कुम्हार एक हाथ से अंदर से सहारा देता है और बाहर से थाप देता है | इसमें मटकी बचे हैं, अंदर से सहारा देने वाला हाथ मा है और बाहर से थाप देने वाला हाथ पिता है | जिस तरह से मटकी बनाते समय अंदर से सहारा व बाहर से थाप की जरूरत होती है | ठीक उसी तरह से बच्चे के व्यक्तित्व निर्माण में भी मां के कोमल सहारे व पिता के कठोर थाप के संतुलन की जरूरत होती है | उन दोनों के नरम-गरम देखरेख में ही बच्चों का विकास होता है |

यदि माता-पिता अपनी संतान को कोई कार्य करने से रोकते है तो समझ ले उसके पीछे अवश्य ही कोई कारण छुपा होगा या वह कार्य अनुचित होगा | परंतु बड़े ही दुर्भाग्य की बात है कि आजकल की युवा पीढ़ी को अनोखा जोश छाया रहता है | माता पिता सोचते है, कि उनकी संतान बड़ी हो जाए तो उसमें अपने आप समझ आ जाएगी | परंतु सत्य तो यह है कि जब संतान समझदार हो जाती है तो वह अपने माता पिता को ही नासमझ समझने लगती है है समझने को ही नासमझ समझने लगती है है तो वह अपने माता पिता को ही नासमझ समझने लगती है है समझने को ही नासमझ समझने लगती है है समझने लगती है | उन्हें अपने ही पिता पर विश्वास नहीं रहता | छोटी से छोटी वार्तालाप पर भी वह बहस कर देते हैं | लड़ते झगड़ते रहते हैं मानो कि पिता नहीं शत्रु हो पिता नहीं शत्रु हो हो | पिता की डांट में भी परिशुद्ध प्रेम छुपा हुआ होता है | उन्हें जीवन का व संसार का ज्ञान होता है | वह कभी नहीं चाहेंगे कि उनकी संतान की जीवन में कभी भी किसी संकट का प्रवेश हो | एक पिता सख्त हो सकता है, अहंकारी हो सकता है ,अभिमानी हो सकता है ,परंतु अपने संतान के लिए वह कभी भी शत्रु नहीं हो सकता| यही उनकी विशेषता है |

वर्तमान अवस्था बड़ी गंभीर होती जा रही है | अत्यंत दुख होता है यह जानकर की एक संतान अपने ही माता-पिता के विरुद्ध जाती हैं |पुत्र अथवा पुत्री अपने ही माता पिता को छोड़कर जाने का साहस कैसे कर पाते हैं | अपने मां से वंचित होकर उन्हें दुआ देने वाला कोई नहीं होता और पिता से वंचित होकर उन्हें हौसला देने वाला कोई नहीं होता है | ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न करने वालो से नम्र विनती है कि अपने ही माता-पिता को अत्यंत पीड़ा देकर आप अपने जीवन में कुछ प्राप्त नहीं कर सकते और यदि प्राप्त कर भी लिया तो भी आप अपने मन को संतुष्ट कैसे कर पाओगे ? अपने ही परिवार का मन , दुखाकर उस परमात्मा के सामने स्वयं को प्रस्तुत कैसे करोगे ? वह मूर्ख नहीं है उसे छल कैसे करोगे ? अपनी ही माता-पिता को बेसहाय छोड़ने वालों को नारायण भि क्षमा नहीं करता | इससे बड़ा पाप जीवन में कोई है ही नहीं | कभी भी उन्हें इतना विवश मत करो कि चैन की सांस लेना तक उनके नसीब में ना हो | ऐसी संतान होने से अच्छा है कि हर व्यक्ति बैऔलाद रहे | जो व्यक्ति अपने ही माता-पिता के अश्रु का कारण बनने उससे बड़ा कपूत या राक्षस इस पूरे ब्रह्मांड में कोई है ही नहीं |

‘बेटियां पराया धन होती है’

बड़ा ही अनुचित सा वाक्य है ये | एक स्त्री अपना घर परिवार छोड़ जब अपने ससुराल में प्रवेश करती है | उसी क्षण से उसके जीवन का नया अध्याय आरंभ हो जाता है व नई जिम्मेदारियों का आगमन हो जाता है | एक बेटी विदा होने के पश्चात भी पराई नहीं होती | वह अपने माता पिता को पीड़ा नहीं पहुंचाती | यह वाक्य हर बेटी के दिल को चुभता है जब उसे पराया कहा जाता है | माता-पिता भी तो विधाता होते हैं | वह अपनी संतान का भविष्य रचते है | कभी भी किसी स्त्री को पराया ना कहें |

— रमिला राजपुरोहित

 

 

रमिला राजपुरोहित

रमीला कन्हैयालाल राजपुरोहित बी.ए. छात्रा उम्र-22 गोवा