नंददास की कोशकला पर प्रिया सूफी की दृष्टि
प्रगतिशील साहित्यकारों की सूची में एक नाम आकर और जुड़ गया। पंजाब राज्य के होशियारपुर में एक कॉलेज में 1998 से अनवरत हिंदी व्याख्याता के रूप में अपनी सेवाओं से विद्यार्थियों के भीतर हिंदी के प्रति विपुल ज्ञान भरकर जिज्ञासा जगाती रहती हैं। कविता, कहानी एवं शोधपत्रों द्वारा हिंदी को समर्पित प्रतिभाशाली साहित्यकार हैं डॉ प्रिया सूफी। इनका तन चाहे आज के आद्य परिवेश में हो लेकिन इनका मन अपनी परम्परागत धरोहर से पृथक नहीं होता। एक शोधार्थी के रूप में इन्होंने ऐसे ही विषय को चुना और पूरे मनोयोग से सिंधु मंथन कर नवनीत निकाला। भक्तिकालीन अष्टछाप के सुविख्यात संत कवि नंददास पर उनकी चंचल नजर ठहरी। फिर क्या था! डूबीं और वर्षों तक अन्वेषण करने के उपरांत कवि नंददास के उस अनमोल खजाने को लेकर निकलीं जिसके बारे में आमजन अनभिज्ञ था।
शोधार्थी का दायित्व होता है कि अग्रगामी खोज करके जन सामान्य का पथ प्रशस्त करे। भविष्य हेतु उद्देश्य निर्धारित करे। वर्तमानकालीन भवन की नींव का समुचित आँकलन करके भविष्य में उसके विस्तार की अवधारणा दे सके। अज्ञेय को ज्ञेय कर सके। इतिहास के प्रांगण की सफाई करते हुए गर्दिश में गुमसुम सितारों का मूल्यांकन कर सके। उनको सम्मान दिला सके। न केवल वर्तमान बल्कि भविष्य हेतु भी उसकी उपादेयता को परीक्षित कर निर्धारित कर सके। उपयोगी और अनुपयोगी साहित्यों को पृथक कर सके। अनुगामियों को दिशा निर्दैश दे सके।
भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग कहा जाता है। कहना भी चाहिए। आधुनिकता की असीम लोलुपता में नैतिकता की सीख के लिए भक्तिकाल की रचनाएँ अब भी प्रयोज्य हैं, प्रासंगिक हैं। संत कबीर, तुलसीदास, सूरदास, जायसी आदि ख्यातिलब्ध कवियों से निर्मित समृद्ध श्रृंखला की महत्वपूर्ण कड़ी कवि नंददास हैं। इनका भँवरगीत किसे मंत्रमुग्ध नहीं कर लेता! विद्यालयी पाठ्रयक्रम में भी भँवरगीत को स्थान प्राप्त है। नागरी प्रचारिणी सभा,काशी ने नंददास की कृतियों के आधार पर ‘नंददास ग्रंथावली’ का प्रकाशन पं. ब्रजरत्न दास के संपादन में कराया। इसमें कुल 14 कृतियाँ शामिल हैं। कवि नंददास के कवित्व और काव्य कृतियों पर प्रचुर मात्रा में शोध भी हुए। शब्द जड़ने की इनकी अप्रतिम कुशलता के कारण ही ये ‘जड़िया नंददास’ भी कहलाए। इसी का परिणाम है कि आज भी सूरदास के साथ नंददास का नाम लेना कोई भी साहित्य प्रेमी नहीं भूलता। दूसरे शब्दों में कहें तो नंददास के बिना भक्तिकाल अधूरा है। कुछ आचार्यों के अनुसार ये गोस्वामी तुलसीदास के चचेरे भाई थे जो किसी रूपवती स्त्री का पीछा करते हुए गोकुल में आए और दीक्षा लेकर यहीं रम गए। भक्ति और सृजन में रम गए। अगम – अगोचर श्रीकृष्ण को प्रेम द्वारा प्राप्त करने में संलिप्त हो गए। इन महत्वपूर्ण उपलब्धियों के बावजूद ‘कोशाकार नंददास’ अछूता-सा रह गया। किसी ने ध्यान भी दिया तो मात्र चर्चा करके खाना पूर्ति ही किया। ‘कवि’ के समक्ष ‘कोशाकार’ लुप्तप्राय ही रहा।
किसी भी भाषा की मूल शब्दावली बहुत छोटी होती है। लेखक नये-नये शब्दों को गढ़ते हैं और कोशाकार उन शब्दों को समुचित स्थान पर उनके अर्थ के साथ शामिल करके कोश की समृद्धि बढ़ाते हैं। यह स्तुत्य कार्य सदियों से होता आया है। नंददास ने ‘अमरकोश के भाय’ द्वारा स्वरचित कोश को ‘अमरकोश से प्रेरित स्वीकार किया है। यह अलग बात है कि लेखन का तरीका व स्वरूप दोनों में पृथक है। नंददास के चौदह ग्रंथों में उनके ‘मंजरी’ नामक साहित्य में अनेकांत मंजरी और मान मंजरी कोश से संबंधित कृतियाँ हैं। अनेकांत मंजरी वह कोश है जिसमें एक शब्द के अनेक अर्थ हैं तथा मान मंजरी (नाममाला) समानार्थक शब्दों पर आधारित कोश है। उनके शिष्य, प्रशंसक एवं भक्त रामहरि ने बताया है कि अनेकार्थ मंजरी में उनके लिखे 120 दोहे हैं तथा नाममाला में 265 दोहे हैं। इनसे पूर्ववर्त्ती कोशाकारों ने प्रायः दोहा या अन्य किसी छंद में कोश के अंतर्गत शब्द को रखा है जिससे उन्हें कंठस्थ करना आसान है जबकि नंददास ने न केकल शीर्षक शब्द बल्कि अर्थ और विवेचना को भी छंद में रखा है तथा श्रीकृष्ण भक्ति से सर्वथा प्रभावित भी हैं इसलिए कोश पर इसका प्रभाव बहुतायत पड़ा है। इसी के कारण अधिकाधिक शब्दों को कोश में रख नहीं पाए हैं तथा भावार्थ पर भक्ति हावी है।
कहा जाता है और स्वयं सिद्ध भी है कि परिश्रम ही सफलता की कुंजी है। बिना श्रम के कुछ भी नहीं मिलता और श्रम से कुछ न कुछ जरूर मिलता है। शिक्षण, सृजन और शोध जैसी त्रिविधा सम्पन्न डॉ प्रिया सूफी ने शोध विषय के रूप में बहुत बड़ी चुनौती को स्वीकार किया। यह उनकी दृढ़ता और धीरता का परिचायक है जबकि अधिकाधिक लोग सरल राह ही चुनते हैं। शोधार्थी ने जितनी तन्मयता से इस उपेक्षित विषय का चयन किया, उससे अधिक लगन से शोध किया। यद्यपि यह अकाट्य सत्य है कि कवि नंददास सदैव ही कोशाकार नंददास पर भारी हैं तथापि उनका कोश भाषाविदों के लिए आनमोल है। रचनाकारों के लिए कौतूहल भरा है। भक्तों के लिए भक्ति और ज्ञान का सम्मिलित पुंज है। अनुशासित व्याकरण और स्वांतः सुखाय साहित्य के मध्य अवस्थित मजबूत स्तम्भ है।
डॉ प्रिया सूफी कई वर्षों से लेखन कार्य से जुड़कर परिपक्व हो चुकी हैं। उनकी कई पुस्तकें भी प्रकाशित हैं तथा प्रकाशनाधीन भी। यह पुस्तक अगर दो भागों में प्रकाशित हुई होती तो सस्ती और सुविधाजनक लगती लेकिन चूँकि अकादमिक शोधग्रंथ है इसलिए एक साथ रखना जरूरी था। टंकण एवं प्रकाशन बहुत स्पष्ट एवं त्रुटिहीन है। लेखिका ने कई भागों और उपभागों में बाँटकर पुस्तक को सरल बना दिया है। सुग्राह्य बना दिया है। चार सौ इक्यासी पृष्ठीय यह ग्रंथ हिंदी साहित्यकारों, प्रेमियों एवं भाषा शास्त्रियों के लिए अंधे के हाथ बटेर जैसा है। कवि नंददास की कोशकला में उनकी परिपक्व और जिज्ञासु लेखनी अपनी छाप छोड़ती है। निष्पक्ष होकर किसी विषय को प्रस्तुत करना किसी मनुष्य के लिए आसान नहीं होता। प्रिया ने यह दुरूह कार्य भी पूर्ण मनोयोग से किया है। शोधग्रंथ के रूप में उनका यह महती कार्य न केवल श्रद्धेय नंददास जी के प्रति अनमोल सारस्वत श्रद्धांजलि है अपितु हिंदी भाषा के लिए भी अनुपम उपहार है। किसी भी नवकोश के लिए मील का पत्थर भी।
पुस्तक- कवि नंददास की कोशकला
लेखिका- डॉ प्रिया सूफी
समीक्षक – डॉ अवधेश कुमार अवध
प्रकाशन- साहित्य संस्कृति प्रकाशन, होशियारपुर
मूल्य – रुपये 950 मात्र
संपर्क- [email protected]
9878612556
— डॉ अवधेश कुमार अवध