कविता

तपती धरती

आसमान से पूछती धरती
मेरे आका, क्यों जला रहे हो मुझे,
क्यों तपा रहे हो मुझे !!
जल घट रहा है यहां,
हरियाली हर ले गए तुम,
लाली प्रकृति की वापस दे दो,
मेरे आका,
झूला लिए लोग खड़े,
नीम, पीपल की छांव तले !!
सूरज अब डराने है लगा,
मन अब घबराने है लगा ,
प्रकृति का दोहन करो बंद,
धरती का शोषण करो बंद!!
आओ हम ही पेड़ लगाए,
पुकार यही है धरती की,
गाये सरिता सागर अपनी धुन,
और मधुर गान पंछी भी गाये !!

*भगवती सक्सेना गौड़

बैंगलोर