कविता

मेरी बूँद बूँद अनमोल

मैं निराकार निज गुण धर्म नहीं
सब रूपों में रह लेता,
जिसमें मिल जाऊँ जहाँ रख जाऊँ
रूप रंग वही ग्रहण कर लेता

फूलों पर ओस की बूँदें मेरी
मोती सम इत उत ढलकती हैं
रहें लचीली अस्तित्व न खोती
जीवन में हमें सिखाती हैं।

बहूँ सदा अविरल निर्बाध
जो मिल जाये लिये साथ
न है देश सीमाओं का बंधन
मैं हूँ नदिया की जलधार

कीचड़ में खिल जाये कमल
मन को करे प्रसन्न प्रफुल्लित
विपरीत परिस्थितियाँ रहे अस्तित्व
फूलें बढ़ें निर्विकार निर्लिप्त

दुःख संतप्त नेत्रों में आँसू बन
बेबसी व्यथा सुना जाती
कभी हर्ष भाव से भर झर झर
खुशियाँ सैलाब तोड़ जातीं

मैं बन हिम करूँ आच्छादित
उच्च अडिग अटल गिरिवर
रवि किरणों संग स्वर्ण सा चमकूँ
करूँ प्रकृति श्रृंगार मुकुट बन

गिर उच्च शिखर से निर्झर बन
रुकूँ न, आगे बढ़ता जाता
निर्मल चंचल कलकल छलछल
नव राग छेड़ संगीत सुनाता

खारा तो क्या हूँ रत्नगर्भा
समेटे उदर में अतुल जल सम्पदा
है अपार अनन्त विस्तार मेरा
पर रहो मर्यादित सदा बताता

वाष्पित हो खारे सागर से
भर मधुर जल नभ में छा जाये
न करे संग्रहीत गरजे बरसे
तपित धरा की प्यास बुझाये

जल ही जीवन ही जल
मेरी बूँद बूँद अनमोल
करो सदुपयोग है सीमित भंडार
नहीं तो धरा करेगी हाहाकार !

— सुधा अग्रवाल

सुधा अग्रवाल

गृहिणी, पलावा, मुम्बई