/ अखंड बनो इस जग में /
अखंड बनो इस जग मेंं
तृप्त नहीं होती इंद्रियाँ कभी
इच्छाओं की शाखाएँ
शांति नहीं देती हैं मन को
अखंड जगत के साथ
सत्संगति से हो पूर्ण जीवन
भेद – विभेदों की दीवारें
स्वार्थ के पाखंड हैं
यहाँ मनुष्य नहीं, विकार है
कुटिल तत्वों के जाल में
बंदी मत करो इस कपोत को
परिवर्तनशील जगत में
उड़ने दो मन को
निज धर्म के विकास से
होती है समता, ममता, भाईचारा
बातों से नहीं, कर्म से
वचनों से नहीं, आचरण से
नित्य साधना से
मन, वचन, कर्म की शुद्धि से
मध्यम मार्ग से, अष्ठांग सूत्र से
मुक्ति मिलती है इस जीव को।