लघुकथा : भाभी – माँ
पिता के देहावसान के बाद संजय की स्थिति बद से बदतर हो गयी थी। घर-परिवार, गली-मुहल्ले व सगे-सम्बंधियों में अपनी शराबखोरी के चलते वह सबकी नजरों से गिर हो चुका था। जब बड़े भाई निहाल को ही वह फूटी आँख नहीं सुहाता; तो भाभी अरूणा का पुछो ही मत। यह भी तो सच था कि संजय सुबह घर से निकल जाता, दिन भर कहाँ रहता, क्या करता; किसी को पता नहीं। देर रात तक लड़खड़ाते कदमों से वह घर आता; और फिर बक-बक शुरू। निहाल ने तो बात करना ही बंद कर दिया था उसके साथ। गालियों के शब्दकोश में ऐसी कोई गाली ही नहीं बची थी, अरूणा ने संजय के लिए उपयोग न किया हो। अब बस बच गयी तो माँ देविका। संजय तो अब भी ‘संजू’ ही था छुटपनवाला माँ देविका के लिए।
आज रात तो हद हो गयी। सब के खाना खाने के बाद अरूणा ने कुकर की बची दाल में पानी डाल दी। बड़बड़ाने लगी- “सब्जी नहीं बची तो मैं क्या करूँ… कुछ भी खाय, मेरो को क्या है?” मैं उसकी नौकरानी थोड़ी हूँ कि उसके लिए और सब्जी बनाती रहूँ।” सब के सब सो गये।
देविका की आँखों से नींद गायब थी। दरवाजे को खुला रखा था उसने। बार-बार बाहर झाँककर देखती। पर पता नहीं देविका की नींद कैसे झूप-से लग गयी। अचानक आँख खुली; देखती है- संजय थाली में रखा दाल-भात खा रहा था। बगल में कटोरी भर सब्जी थी।
अब देविका को खाली पेट ही नींद लग गयी।
— टीकेश्वर सिन्हा “गब्दीवाला”