उपन्यास अंश

लघु उपन्यास – षड्यंत्र (कड़ी 15)

शकुनि की बातें सुनकर धृतराष्ट्र की चिन्ता और अधिक बढ़ गयी। पांडवों के प्रति उनके मन में द्वेष तो पहले से ही था, लेकिन अब इस संभावना को सोचकर उनकी चिन्ता चरम पर पहुँच गयी कि उनको राजसिंहासन छोड़ना पड़ेगा और उनके पुत्रों को पांडवों की दया पर रहना पड़ेगा। इस संभावना के कारण उनको रात्रिभर नींद नहीं आयी और उनका मन भी पांडवों के प्रति और भी अधिक दूषित हो गया। यद्यपि वे इसको प्रकट नहीं करते थे और न करना चाहते थे।

दूसरे दिन मंत्री कणिक महाराज धृतराष्ट्र से मिलने आ गया। वह धृतराष्ट्र का अत्यन्त विश्वासपात्र मंत्री था। वास्तव में शकुनि और दुर्योधन ने ही उसको मंत्रिपरिषद में रखवाया था और उसे पर्याप्त धन देकर संतुष्ट रखा करते थे, ताकि वह उनकी गोपनीय बातें अपने तक ही रखे।
कणिक ने आते ही महाराज का अभिवादन किया और पूछा- ”महाराज ने किसलिए याद किया है?“

अभिवादन का उत्तर देकर धृतराष्ट्र ने कहा- ”कणिक! आज मेरा मन बहुत खिन्न है। तुम मुझे राजधर्म का उपदेश दो कि राजा को अपना राज्य सुरक्षित रखने और शत्रुओं का विनाश करने के लिए क्या-क्या उपाय करने चाहिए।“

कणिक को यह सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ, क्योंकि धृतराष्ट्र प्रायः राज्य की सुरक्षा और शत्रुओं का नाश करने की बातें कभी नहीं करते थे। सामान्यतया वे केवल धार्मिक और पारिवारिक विषयों पर ही उनकी सलाह लेते थे। राज्य की सुरक्षा का कार्य उन्होंने पितामह भीष्म पर छोड़ा हुआ था, जो अपना कर्तव्य भली-भाँति कर रहे थे। उनके रहते हुए राज्य को किसी तरह का कोई संकट होने का प्रश्न ही नहीं उठता था। फिर भी कणिक ने महाराज से यह नहीं पूछा कि आज आपको राज्य की सुरक्षा की चिन्ता क्यों हो रही है और आपके वे शत्रु कौन हैं, जिनका आप विनाश करना चाहते हैं?

यद्यपि मंत्री के लिए यह अनुमान लगाना कठिन नहीं था कि महाराज पांडवों को ही अपने शत्रु के रूप में देखते हैं और उनके विनाश का उपाय जानना चाहते हैं, परन्तु इसका उल्लेख करके वह अपनी आशंका को प्रकट नहीं करना चाहता था। इसलिए प्रकट रूप में उसने यही कहा- ”अवश्य महाराज! मैं आपको राजा के कर्तव्यों का उपदेश करूँगा।“ यह सुनकर कणिक की बात सुनने के लिए महाराज एकाग्रचित्त हो गये।

कणिक कहने लगा- ”महाराज! किसी भी राज्य के 7 अंग होते हैं- पहला राजा स्वयं, दूसरा उसके मंत्री, तीसरा राष्ट्र, चौथा दुर्ग, पाँचवाँ कोष, छठा सैनिक बल और सातवाँ मित्र। राजा को चाहिए कि वह अपने इन सभी अंगों को निरन्तर सुदृढ़ करता रहे। यदि इनमें से कोई अंग निर्बल हो, तो उस निर्बलता को प्रकट नहीं करना चाहिए, वरन् इस बात को छिपाकर उसे सबल बनाने का प्रयास करना चाहिए। राजा को अपने मित्रों की संख्या बढ़ाते रहना चाहिए और शत्रुओं की संख्या कम करते रहना चाहिए।“

धृतराष्ट्र ने व्यग्रता से पूछा- ”कणिक! शत्रुओं को कम करने और उनका विनाश करने के कौन से उपाय राजा को अपनाने चाहिए?“

कणिक ने सोचकर उत्तर दिया- ”महाराज! राजा को सुरक्षित होने के लिए अपने शत्रुओं को समाप्त करना आवश्यक होता है। उसे शत्रु की दुर्बलताओं का पता लगाना चाहिए और उनका लाभ उठाकर उन्हें दंड देने और समाप्त करने का प्रयास करना चाहिए। अपना अनिष्ट करनेवाले या उसका भय उत्पन्न करनेवाले शत्रुओं का वध कर देना चाहिए। शरण में आये हुए शत्रु पर भी दया नहीं दिखानी चाहिए। लेकिन यदि शत्रु हमसे अधिक सबल हो, तो उसका कहना मानना चाहिए और उस उचित समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए, जब हम उसका नाश कर सकते हैं। शत्रु पक्ष का समूल संहार करना राजा का अनिवार्य कर्तव्य है।

”महाराज! शत्रु को वश में करने के सात साधन हैं- साम, दाम, भेद, दंड, उद्बंधन, विष प्रयोग और आग लगाना। राजा को इनका प्रयोग अपनी और शत्रु की शक्ति तथा अवसर की अनुकूलता के अनुसार करना चाहिए। वृक्ष की शाखाओं को विनम्रता से अपनी ओर झुकाकर ही उसके फलों को सरलता से तोड़ा जा सकता है। जब तक समय अनुकूल न हो, तब तक शत्रु को कंधे पर बिठाकर भी ढोना चाहिए, फिर अनुकूल अवसर आते ही उसे पत्थर पर मारकर तोड़ देना चाहिए।

”महाराज! यदि शत्रु संगठित हों, तो उनमें भेद उत्पन्न करके उन्हें कमजोर करना चाहिए। जिस प्रकार गीदड़ ने अपने शत्रुओं वाघ, चूहा, भेड़िया और नेवला के संगठन में भेद पैदा करके वाघ के मारे हुए हिरण को अकेले हड़प लिया था।“ यह कहकर कणिक ने धृतराष्ट्र को गीदड़ की कहानी विस्तार से सुनायी।

”महाराज! अपना शत्रु जैसा हो उसके साथ वैसा ही व्यवहार करके उसे वश में करना चाहिए। यदि शत्रु डरपोक है, तो उसे भय दिखाना चाहिए। यदि शत्रु शूरवीर है तो उसे उसकी प्रशंसा करके और हाथ जोड़कर भी वश में करना चाहिए। लोभी शत्रु को धन देकर संतुष्ट करना चाहिए और निर्बल शत्रु को अपने पराक्रम से वश में कर लेना चाहिए।“

— डॉ. विजय कुमार सिंघल

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com