गीतिका/ग़ज़ल

कहाँ अब दिन सुहाने हैं

नही है फ़िक्र अब वैसी, नहीं वादे पुराने हैं
निभाते थे जिसे पहले, कहाँ रिश्ते पुराने हैं..।।

लुभाते थे कभी जो गीत हम भी गुनगुनाते थे
नहीं भाते हैं अब मन को कहाँ ऐसे तराने हैं..।।

झलक धूमिल सी लगती है झुकी नज़रों में अक्सर अब
है बदला प्रेम का मौसम कहाँ अब दिन सुहाने हैं..।।

चुराते थे कभी जो दिल चुराते हैं नज़र अब वे
जो मरते थे कभी हम पर कहाँ ऐसे दीवाने हैं..।।

जुगत मिलने की करते थे कोशिशें रंग लाती थीं
नहीं होता है मिलना अब कहाँ ऐसे बहाने हैं..।।

— विजय कनौजिया

विजय कनौजिया

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