सामाजिक

खुद को ही सर्वश्रेष्ठ न समझें

श्रेष्ठ या सर्वश्रेष्ठ होना हमारे आपके विचारों, सोच को जबरन खुद को घोषित करने की जिद कर लेने भर से नहीं हो जाता।परंतु मानव की एक बड़ी कमजोरी है खुद को श्रेष्ठ/सर्वश्रेष्ठ समझने, मानने की। हम इसे अहम या वहम भी कह सकते हैं।परंतु श्रेष्ठ होना ही जब बड़ा मुश्किल है तब सर्वश्रेष्ठ होने की मुश्किल को आसानी से समझा जा सकता है।
हम वास्तव में क्या हैं? ये हमसे बेहतर भला कौन जान सकता है।बावजूद इसके हम बिना किसी दुविधा/अपने मुँह मियां मिट्ठू बनने के चक्कर में सर्वश्रेष्ठ साबित करने के लिए जाने कितने गढ़े हुए तर्क जबरदस्ती दे देकर अपनी ही भद पिटवाने में तनिक भी शर्म नहीं करते। जबकि श्रेष्ठ या सर्वश्रेष्ठ जन खुद को सरल और अज्ञानी होना ही प्रदर्शित करते हैं, खुद को छोटा और सीखने की प्रक्रिया में ही खुद को दिखाते हैं।
वास्तव में हमारे गुणधर्म, ज्ञान, विवेक और काफी हद तक व्यक्तित्व और कृतित्व का समावेशी आचरण हमें श्रेष्ठ/सर्वश्रेष्ठ बनाता है, जिसका गुणगान करने की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि वो ज्ञानी, अनुभवी जन, समाज, संबंधित क्षेत्रों के पुरोधाओं की ओर स्वतः प्रकाशित किया जाने लगता है। लोग उनका अनुसरण करते हैं, सीखते हैं,उनकी तरह बनना चाहते हैं, उन्हें अपना आदर्श मानते हैं, सम्मान करते हैं और तब श्रेष्ठ/सर्वश्रेष्ठ की कतार में हम स्वतः पहुंच जाते हैं।
उच्च कुल, वंश या धनाढ्य परिवार का होना सर्वश्रेष्ठ होने की बाध्यता या गारंटी नहीं है। ज्ञान किसी की बपौती नहीं है,ज्ञान हर उसकी उतनी ही मुरीद होती है,जो उसको पाने के लिए जितना खुद को झोंकता है। जरूरी नहीं कि शैक्षणिक ज्ञान ही सब कुछ हो, बुद्धि, विवेक, चिंतन, व्यवहारिक अनुभव भी इस दिशा की दशा तय करने में अहम भूमिका निभाते हैं। अन्यथा आज रहीम, सूर, कबीर ,रविदास को भला कौन जानता। लेकिन इन सबने खुद को कभी सर्वश्रेष्ठ तो क्या श्रेष्ठ नहीं कहा। फिर भी उन्हें आज भी महत्व मिलता है और देने वाले भी हम,आप और समाज के लोग ही हैं।
यदि हम श्रेष्ठ या सर्वश्रेष्ठ हैं तो भी इसका आँकलन आप खुद भला कैसे कर सकते हैं। हमारे आपके पास भला कौन सा पैमाना, सूत्र या अलादीन का चिराग है, जो यह साबित करता हो कि हम या आप सर्वश्रेष्ठ हैं। अच्छा है इस होड़ में फँसकर वास्तविकता को चुनौती देकर अपनी अहमियत / महत्व कम न कीजिये।
अच्छा है खुद को ही श्रेष्ठ/सर्वश्रेष्ठ या सर्वोपरि न समझें, इसे समय, समाज पर छोड़ दीजिये, अहम पालकर अपने को नीचा मत दिखाइये। माना कि हम या आप ही श्रेष्ठ हैं ये भाव अच्छा है, मगर हम ही सर्वश्रेष्ठ हैं ,यह आपका अहम,वहम हैं और यह बताता है कि आप या हम सर्वश्रेष्ठ या श्रेष्ठ तो क्या उत्तम भी नहीं हैं। जिस पर हमें या आपको खुद ही विश्वास नहीं है।इसलिए सबसे अच्छा है कि हम या आप खुद को सर्वश्रेष्ठ दिखाने के बजाय सिर्फ़ अपने उद्देश्यों, लक्ष्यों, कर्तव्यों, जिम्मेदारियों के प्रति निष्ठावान रहें और अपना मान सम्मान, स्वाभिमान बरकरार रखें। ‘मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूँ’ के मकड़जाल में न फँसे ,यही बेहतर ही नहीं उचित और सर्वश्रेष्ठ भी।

*सुधीर श्रीवास्तव

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