ग़ज़ल
जान, पहचान हो गई होगी।
आन और शान हो गई होगी।
कल तलक़ जो कठिन रही शायद,
आज आसान हो गई होगी।
आहटें मौत की सुनी जब से,
जीस्त हैरान हो गई होगी।
उसकी, पिघले नहीं है दिल जिसका,
रुह पाषाण हो गई होगी।
जिसने बेटी विदा की उसकी तो,
देहरी सुनसान हो गई होगी।
मुस्कुराते हुऐ सुबह आई,
शब मेहरबान हो गई होगी।
कैसे नज़रें मिलाए अब ‘जय’ से,
वो पशेमान हो गई होगी।
— जयकृष्ण चांडक ‘जय’