कविता

दर्द की आह

दर्द की आह में
कैसी ये बेबसी
कैसे ये रिश्ते जो
कर रही खुदकुशी
स्वयं के खिलाफ हीं
करती ये साजिशें
अपनो के हीं नाम
करती क्यों आजमाइशें ?
हर वक्त का पहरा
दिल के दरवाजे पर
कुछ गहराता कालिमा
जख्म के हाल पर
खुद नमकीन करते हैं
अपने हीं गुनाह को
चटखारे लेकर हंसते हैं
दूसरे के सवाल पर
पर रिसता हैं वही लहू
अपने हीं  घाव पर
समझ नहीं पाते कुछ
सच्चाई की बात पर
करते खुद की तारीफ़
कर खुद के घात पर
ठिठकती हैं जिंदगी
जाने कितने सवाल पर
जो देती हैं  दस्तकें
मन के हर तार पर
मत पाल तू भ्रम
फंस कर भी हर पल
बचने के लिए
अपने हीं फेंके जाल पर
क्योंकि तू भी थिरकता है
उस खुदा के ताल पर
जो देती हैं सजा
झूठ के मोह जाल पर।
— सलोनी सिंह

सलोनी सिंह

सुल्तान गंज, भागलपुर-बिहार