ग़ज़ल
नफ़रत की है तलब न किसी ख़्वार की तलब ।
इंसां को है ज़रूरी फ़क़त प्यार की तलब ।।1
आएंगे बार बार वो दीवाने हुस्न के ।
होगी जिन्हें यूँ आपके दीदार की तलब ।।2
पहले जुनून ए इश्क़ में पागल तो हो के देख ।
पूछेंगे लोग तब कहीं बीमार की तलब ।।3
बिकता रहा जो मीडिया ऐसे यहाँ ऐ दोस्त ।
जिंदा नहीं रहेगी ये अखबार की तलब ।।4
दिन रात झूठ बोलते नेता जी बेहिसाब ।
कितना गिरेगी और ये अधिकार की तलब ।।5
जीना मुहाल हो गया है तब से ऐ हुजूर ।
महंगाई जब से हो गयी सरकार की तलब ।।6
दो वक्त की हों रोटियां कुनबे के वास्ते ।
इतनी ही बच सकी यहाँ लाचार की तलब ।।7
— नवीन मणि त्रिपाठी