ग़ज़ल
तुम्हारे शह्र में गर हम ठहर गए होते ।।
रक़ीब पर ही हमारा क़तर गए होते ।।
अगर न मिलती हमें तुमसे ये पज़ीराई ।
हमारे ख़्वाब यकीनन बिखर गए होते ।।
किया है जितना ज़माने ने तब्सिरा उन पर ।
न होता इश्क़ तो कब के वो मर गए होते ।।
रहा ये अच्छा नहीं आये मैक़दे में हम ।
वग़रना ज़ाम भी हद से गुज़र गए होते ।।
वो दफ़अतन ही अगर मेरे रूबरू होता ।
तमाम ज़ख़्म पुराने उभर गए होते ।।
असर वफाओं का कायम रखा मुझे वरना ।
नज़र से हम भी किसी दिन उतर गए होते ।।
हुजूर इश्क़ निभाने की क्या ज़रूरत थी ।
बला से आप भी हँसकर मुकर गए होते ।।
— नवीन मणि त्रिपाठी