लक्ष्य जीवन का
आत्मा परमातना का अंश है
जीव के कण-कण में ही वह व्याप्त है
शुद्ध है,निर्मल है और निर्लिप्त है
देखने को वह कभी दिखती नहीं
ढूंढ़ते रहते ऋषिगण-बुद्धजन
पर ना देखा है किसीने आज तक
होता है आभास बस उस प्राणी में
जिस ने खोजा और पाया स्वयं में
आत्मा मरती नहीं जलती नहीं
ना ही पानी उस को गीला कर सके
प्राण ही इस जीव का आधार है
प्राण बिन निर्जीव हो जाता है वह
मृतयु ही निष्प्राण का आधार है
मर के जीवन पाती है फिर आत्मा
अथवा फिर परमात्मा में लीन हो
लक्ष्य अपना पूरा कर जाती है वह
भोग कर संसार में कर्मों का फल
जीव लेता रहता है फिर फिर जन्म
आत्मा तो सारथी है जीव की
जीव जब पहचानता है आत्मा
फिर कभी दुष्कर्म होता ही नहीं
मस्त हो कर भोगता ऐश्वर्या वह
फिर कभी वह लिप्त होता ही नहीं
देखता रहता है जैसे खेल है
साधना है आत्मा को जानना
ज्ञान से ही मिलता है परमात्मा
वश में हो जाता है मन उस प्राणी के
करता भाव छूट जाता है तभी
जीता रहता है वह अहोभाव से
साक्षी भाव से देख कर संसार को
मन में खुश रहता है वह सदा
लोभ-क्रोध -कामना होती नहीं
रहता है वह दूर ईर्ष्या-द्वेष से
सत्य-प्रेम-करुणा का भाव ले
सफल कर लेता है अपने लक्ष्य को
— डा.केवलकृष्ण पाठक