कविता – पिता जी
मैंने जब होश संभाला
बचपन की सरिता पार कर चुका था
समझ को छोटे-छोटे पंख लग चुक थे
पिजा जी की आदतें महसूस होने लगीं
मेरी आदतें बिल्कुल विपरीत
जवानी पंख लगा कर उड़ गई
परन्तु
आयु के किसी भी चड़ाव पर
उन्होंने कभी मुझे बेटा-पुत्र
कह कर संबोधित न किया
हमेशा एक गाली की चिंगारी दी
प्यार से, मोह से, हर्ष से, गलवकड़ी से
पवित्र रिश्ते से, अपनत्व से
पिता जी से कभी प्यार न मिला
उनकी आदतें विपरीत दिशा में चलती रहीं
घर में क्लेश, तकरार, चुगली-निंदा की भरमार
पिजी की की आदतों की अग्नि में
घर का प्रत्येक प्राणी सुलगता रहा
माँ की आदतें भी विपरीत
पिजी जी की आदतों से
जिंदगी रो-धो कर चलती गई
वर्ष जैसे पंख लगा कर उड़ गए, पता न चला,
जिंदगी कूएं में फैंके पानी जैसी है
बीत चुकी नज़र नहीं आती
परन्तु कुएं के पानी की तरह नज़र ज़रूर आती है दूर तक
अतीत के आईने से
81 वर्षों के पिता जी की आदतें टस से मस न हुई
माँ से तकरार, बच्चों, पुत्र बहूयों से तकरार
इधर लगाना, उधर बुझाना
पिजा जी शूगर के मरीज़
ख़तरनाक बीमारी से पीड़ित हो गए
उनकी काया ऐसे हो गई
जैसे किसी गुब्बारे से हवा निकाल दी हो
अस्पतालों के चक्कर
हर मुमकिन कोशिश के बावजूद,
नाकामी ही हाथ लगी
मैं उनका मल-मूत्र तक पोंछता
अंत्तिम समय
उनकी आँखों में वहते आँसू कुछ कहते
शायद पश्चाताप के
वह मेरी ओर देखते पलकें उठा कर
तथा नीचे कर लेते
जैसे ज़िंदगी के अर्थ समझ गए हों
परन्तु
मेरे आँसू आँखों से नहीं थे निकलते
पिजा जी के मैं आँसू पोंछता
मूँह की लारें साफ़ करता
समय पर दवाई देता
आखि़र! वह फानी दुनिया को अलविदा कह गए
मेरे हृदय में वेदना न थी
सब रोए
मैं नहीं रोया
आँसू जैसे पत्थर हो गए हों
हृदय का खून जैसे स्थिर हो गया हो
पिजा जी का सस्कार कर दिया गया
मेरे आँसू नहीं बहे
अंत्तिम अरदास, भोग रस्म
मेरे आँसू नहीं निकले,
सब रोए
प्रत्येक रिश्तेदार बहन, भाई चले गए
पहले दिन घर से बाहर गया
शाम को, वापिस लौटा
घर का दरवाज़ा खोला
मोटरसाईकिल बरामदे में खड़ा किया
पिजा जी घर में नहीं थे नज़र आए
मेरे करूणा-क्रन्दन फूट पड़ा
और आँसू तेज़ बारिश की भांति बहने लगे
ऊँची-ऊँची आवाज़ों में पुकारने लगा-
फ्पिता जी, पिता जी आप कहां चले गए हो?य्
पिता-बेटे के रिश्ते का मोह
उमड़-उमड़ कर आँखों में उतर आया
अब जब भी बाहर से घर आता हूँ
पिता जी को याद करके
आँसू स्वंयं निकल आते हैं
सोचता हूँ
ज़िंदगी कितनी छोटी है
चुटकी की भांति बीत जाती है।
— बलविन्दर ‘बालम’