लघुकथा

भगवान / निवाला

  खाने का डिब्बा खोल कर सड़क की तरफ पीठ करके पहला निवाला मुख में डाला ही था कि एक जनानी आवाज सुनाई दी “भईया! हमे जरा अपनी अटैची की चेन सही करवानी है..कर दोगे।”
  वो तो भला हो भाईसाब का जो मुझ जैसे को अपने साड़ी -शोरूम के चबूतरे पर सिलाई मशीन रखने दी  वरना कौन अपनी रोजी रोटी की चमक कम करना चाहता है?
मैं एक चटाई बिछाकर सिलाई मशीन रख कर ग्राहकों की अटैची, बैग की चेन बदल कर अपने बीबी बच्चों का पेट पालता था।
 मैं शीघ्रता से मुड़ा मुझे पता था ग्राहक भगवान का रूप होते है ;शायद मेरे मुख पर  रोटी के कण या मेरा खुला डिब्बा उन बहन जी को दिख गया।
 “अरे भईया! तुम तो खाना खा रहे हो.. रहने दो।” बहन जी विनम्रता से बोली
 “बहन जी !तुम अटैची दो …दस मिनट में चेन लगाता हूँ ।”मैं डिब्बा बंद करते हुए बोला क्योंकि मुझे पता था आगे एक छोटी सी दुकान खुल गयी है जहाँ पर खुद दुकानदार कारीगर है यानि मेरी जरा सी चूक मेरे ग्राहक का पैर मोड़ सकती है।
  “अरे भईया! जिस पेट के लिए दिन रात एक कर देते हो, उसी पेट को भूखा रख कर काम करोगे.. इस पेट की वजह से तो दुनिया में इतनी मार- काट मची हुई है.. चलो पहले खाना खाओ “बहनजी मुझे समझाते हुए बोली
  ग्राहक खोने के डर से मैं पहले अटैची में चेन लगाना चाहता था।
 “लो तुम्हे मेरा विश्वास नही है मैं बाकी की खरीददारी बाद में करूँगी लेकिन पहले तुम खाना खाओ।”बहन जी एक बैग को खिसका कर सिकुड़ कर मेरी चटाई पर बैठ गयीं और अटैची अपनी गोद मे रख ली।
 मैंने फिर सड़क की तरफ पीठ करके मुख में निवाला डाला तो ऐसा महसूस हुआ साक्षात भगवान मेरे मुख में डाल रहे है।
  — दीप्ति सिंह

दीप्ति सिंह

बुलंदशहर (उत्तरप्रदेश)