यात्रा वृत्तान्त

मेरी जापान यात्रा – 14

टाकायामा को शीश नवाकर हम अगली सुबह वापिस टोक्यो आये।  क्योंकि हम पहाड़ी इलाके से गुजर रहे थे नज़ारा बहुत सुन्दर मिला।  पहाड़ यहां बाँस के जंगलों से भरे थे।  बीच बीच में नदियों की जलधाराएं उतरती हुई नज़र आ जाती थीं।  गाड़ी की रफ़्तार इतनी तेज कि और कुछ समझ पाना कठिन लग रहा था।  किसी स्टेशन पर एक और यात्री  साथवाली सीट पर आ बैठा।  लगता था कि वह कोई ऑफिस में काम करनेवाला बड़ा अफसर होगा।  उसका पहनावा बहुत आलिशान था।  सामान आदि ऊपर रैक पर सरियाकर उसने अपना ब्रीफ़केस खोला और एक कार्ड का डिब्बा निकला।  यह मिठाई के डिब्बे की तरह खुलता था।  बहुत  करीने  से उसने एक काँटा और छुरी निकाला और चुपचाप खाने लगा। उसका भोजन जेली की चौकोर ,आयताकार ,तिकोनी आकृतियाँ थीं।  उनके रंग अलग अलग थे।  डिब्बे में उनको ऐसे सजाया गया था कि कोई भी टुकड़ा हिले डुले न जबतक उसको कांटे से न खाया जाये।  खाने के बाद उसने प्रसाधन कक्ष में जाकर हाथ धोये और खुशबू  से महकता तारो ताजा होकर अपनी जगह बैठ गया।  हर सीट के साथ अखबार रखे थे।  हम अंग्रेजी की खबरें देख रहे थे तो उसने ही पूछा क्या हम भारत से आये हैं। हमने अपने  देश और भाषा का परिचय दिया  तो वह व्यंग से मुस्कुरा दिया।  मगर अब तो हमारी चमड़ी पर विदेशी परत  चढ़ चुकी है।  कोई  ” काश ”— नहीं बचा है।  मैंने पूछ ही तो लिया कि उसका भोजन जेली क्यों है। उसने हंसकर समझाया की उसने चिकन ,और केक  आदि खाया था।  क्योंकि वह  पब्लिक में खा रहा था इसलिए  सभी चीज़ें जेली की परत में ढकी हुई थीं। वह काम से  परदेस गया था  और अब सीधे अपने ऑफिस पहुंचेगा। फिर शाम को घर।
         बातचीत में टोक्यो आ गया। वह दो मिनट पहले ही उठा और दरवाज़ा खुलते ही तेजी से भीड़ आने से पहले निकल गया।  हम भी इशारा पा चुके थे अतः औरों से पहले ही निकल लिए।  टैक्सी ली और अपने पहलेवाले होटल की राह ली।  टैक्सीवाला जापानी संगीत बजा रहा था जो तलत महमूद के गायन  की याद दिला रहा था।  पूछने पर उसने बताया कि वह पचास और साठ के दशक के गाने सुनना पसंद करता है।  आजकल का संगीत बहुत सुरीला नहीं है। उसमे ट्यून कम और धमधम ज्यादा होती है। और पोएट्री तो ना के बराबर।  हम मन ही मन उसकी हाँ में हाँ मिलाते हैं।
           होटल की मंचूरियन लेडी ने हमें ऊपर अपने कमरे में  जाकर  फ्रेश होने के लिए कहा।   और बताया कि अभी भी कुछ समय बचा है अगर हमें नाश्ता करना हो तो।  हम लोग झटपट मुंह हाथ धोकर डाइनिंग रूम में पहुँच गए।  और नाश्ता किया।  फिर उसने बताया कि अगली सुबह क्योंकि हमको जल्दी की ट्रेन लेनी है बेहतर होगा यदि हिसाब किताब अभी निबटा लिया जाए।  उसके बाद हम लोग बाज़ार आदि घूमने के लिए गए। हमारे चार मेथी के  परांठे हमने उसके फ्रिज में रखवाए थे।  वह उसने हमें याद दिलाये।  उनको साथ लेकर हम लोग घूमने निकल गए।  पतिदेव को नया डिजिटल कैमरा लेना था।  टोक्यो में ही तो बनता है अतः यहां से ही लेना ठीक होगा।  मगर सौदा कुछ जमा नहीं। तभी एक उत्तर भारतीय लड़का आ टपका। अंकल जी मैं यहीं रहता हूँ। मुझे इस स्टोर में नौकरी इसलिये मिली थी क्योंकि मैं भारतीय ग्राहकों को पता आदि बता सकूं, हिंदी में समझा सकूं।  यहां मेरी तरह कई लड़के हैं जो इन बड़ी बड़ी दुकानों में काम करते हैं।  उसी ने हमें बताया कि मेड इन जापान का सारा माल सिंगापुर और कोरिया में बनता है।  यहां इनके पास इंडस्ट्री लगाने की जगह बहुत कम है।  सारे जापान की केवल ३० प्रतिशत भूमि रहने और खेतीबाड़ी के लायक है।  यह लोग भी इंग्लैंड की तरह हरेक वस्तु आस पास के देशों से आयात करते हैं।  फिर उसने अपने किसी दोस्त को हाँक लगाई और उसको अपनी जगह खड़ा करके हमें बाज़ार दिखाने ले गया।
             बड़ी माल के पीछे कहीं गलियों में  घुमाता रहा।  सच में यह एक वैश्विक बाज़ार था।  हर तरह के खाने के स्टॉल, रोज़ मर्रा की वस्तुएं , नकली ब्रांड नामों के सामान ,नकली गहने , मोती ,आदि सब देखने के बाद वह हमको एथनिक बाजार में ले गया।  यहां सभी देशों के फैशन उपलब्ध थे।  उदहारण के लिए मोर्रक्को ,मिस्र ,अरब और सबसे अधिक भारत। यहां भी भारतीय मलमल की घाघरियाँ ,राजस्थानी दुपट्टे , नकली गिलट  के झुमके झांझर ,सस्ते रंगीन पत्थरों की मालाएं ,मेंहदी ,चूड़ी ,बिंदियाँ ,अगरबत्तियाँ आदि बहुतायत से मिल रहे थे।  वह तरह तरह से हमें ललचा रहा था कि हम कुछ खरीदें  . मगर हमने पक्का इरादा किया था कि कुछ नहीं लेना सिवाय लकड़ी के खड़ाऊँ के जो जापान की एक विशेष सौगात होती है।  उस युवक ने दो एक से पूछा मगर किसी को नहीं पता था कि  उसकी दूकान कहाँ होगी क्योंकि अब यह आधुनिक जनता नहीं पहनती।  हमने कहा कि हमारे होटल के सामने एक दूकान है जहां हमने देखी  थीं वह बोला  बस तो आप लोग वहीँ से लेना कल सुबह।  अभी तो आठ बजे तक सारा बाज़ार बंद हो जायेगा।  घड़ी पर नज़र डाली साढ़े सात बजा था।  सहसा लगा घर की राह लो वरना  पराये शहर में देर से ट्रेन में सफर करना सही न होगा।
       युवक ने हमको सही अंडरग्राउंड स्टेशन तक पहुंचा दिया।  टिकट हमारे पास ही था जो वापसी का था।  पति देव ने जेब में हाथ डालकर दोनों टिकट निकाले और फिर
कुछ जापानी सिक्के उसको टिप दी।   हम राजी ख़ुशी अपनी ट्रेन में जा बैठे।  सफर लंबा था।  बाज़ार सुनसान पहले ही हो गया था।  ट्रेन में भी बहुत कम लोग थे।  अपने स्टेशन पर पहुंचकर जब बाहर जाने  की राह ली तो ज़मीन के अंदर ही अंदर सुरंग बेहद लम्बी थी।  दोनों तरफ लोहे की दीवार थी वह भी एकदम सपाट।  अंत में एग्जिट का निशान आ गया।  वही इंग्लैंड वाला सिस्टम। टिकट मशीन में डालो तो बैरियर खुलेगा।  साहब जी ने जेब में हाथ डाला।  एक टिकट हाथ में आई।  दूसरी का पता नहीं।  मुझसे कहा कि घुसते वक्त मशीन में मैंने डाली थी तो मेरे पास ही होनी चाहिए।  बहुत ढूँढा मगर टिकट नहीं मिली। अब क्या हो ? वहां न बंदा न बन्दे की ज़ात।  जहां से ट्रेन छोड़ी थी वहां भी केवल प्लेटफार्म था कोई टिकट ऑफिस या मशीन नहीं थी।  दरअसल यह उस लाइन का आखिरी स्टेशन था।  कोई हमारे आगे पीछे भी नहीं।  बैरियर के चारों तरफ लोहे की सपाट दीवार।  कोने में एक दरवाज़ा दूर पर।  मरता क्या न करता।  पतिदेव ने कहा चलो एक टिकट को ही दो बार चला लेंगे।  ” प्रिया  चढ़ाये चढ़े त्रिपुरारी। ”  सो मुझको पहले जाने दिया।  मैंने टिकट डाली और उस पार चली गयी।  मगर टिकट पहले की तरह वापिस नहीं आई। मशीन को पता था कि यह आखिरी स्टॉप है।   अब और कोई चारा नहीं सूझा।  पतिदेव झटपट एक छलांग लगाकर बैरियर के ऊपर से कूद गए।  मैंने चैन की सांस ली।
           अभी हम मुड़े ही थे कि लोहे की दीवार में एक दरवाज़ा खुल गया ,और एक जापानी  वर्दीधारी  आदमी हमारा रास्ता रोककर अपनी भाषा में गुर्राया।  हमने अंगेजी में उसको बताया की हमारी टिकट कहीं गिर गयी थी। हम सारा दिन उसी पर घूमते रहे थे।  मगर वह मानने को तैयार नहीं हुआ और एक मोटा सा फाइन सुना दिया या फिर जेल।  अंग्रेजी उसकी समझ नहीं आती थी ,जापानी हमारी।  मेरे आंसू टप टप, अविरल धारा।  गलती मेरी ही थी। उसने फोन करके एक और आदमी बुला लिया।  वह भी केवल जापानी भाषा जाने।  हम एक तो शर्मिन्दा ,दूसरे अपराध भाव से ग्रस्त। चारा कोई नहीं। समझा समझा कर पतिदेव थक गए। मैंने अपना देवी मन्त्र मन ही मन याद किया। शायद भक्ति का असर हुआ।  एक और राहगीर आ गुजरा। उसको अंग्रेजी आती थी उसने सारा माजरा समझा। फिर पूछा कि हम कहाँ से आये थे।  हमने बताया तो उसने उन दोनों से  कहा कि जिस होटल में हम ठहरे थे वहीँ से पूछो क्योंकि अक्सर पर्यटक वहीँ से टिकट खरीदते हैं।  हमसे पूछा कि टिकट कैसे खरीदी थी। हमने भी सुबह होटल की रिसेप्शनिस्ट से खरीदी थी।  अतः उस अधिकारी ने होटल को फोन किया और हमारा पासपोर्ट का हवाला देकर पूछा। इस तरह हम बच गए।  हमने उस व्यक्ति को हजारों बार आशीषें दीं और थैंक्स कहा. वह  उन दोनों युवा अधिकारीयों को अपनी भाषा में बरज कर चला गया।
          हम बाहर आये तो चारों तरफ सन्नाटा था।  खाएं क्या ? दोपहर के भूखे। इधर उधर देखा तो सब बंद।  इक्तफाक़ से स्टेशन के बाहर ही सामने एक साइन  दिखा जिसपर कैफ़े लिखा था।
बहुत साधारण सा यह कैफ़े था। अंदर एक बूढ़ा दूकान समेट  रहा था।  हमने पूछा कि क्या कहीं कुछ खाने को मिलेगा ?हम लोग शाकाहारी हैं।  उसने हमें बैठाया और अंदर चला गया।  करीब दस पंद्रह मिनट के बाद वह दो कटोरों में गरम गरम नूडल ले आया जिसमे केवल टमाटर पड़े थे। मगर प्रेम से बनाया यह सादा सा भोजन इतना स्वादिष्ट था कि अभी तक उसकी याद आती है।
खाना खाकर हम होटल में वापिस पहुंचे।  मंचूरियन स्त्री बहुत सांत्वना देती रही।  हमने उसको बताया कि हम जापानी खड़ाऊँ नहीं खरीद पाए। वह इतनी अच्छी थी कि उसने झट अपनी सहेली को फोन किया और कहा कि वह सुबह अपनी दुकान जरा जल्दी खोले क्योंकि हमको साढ़े छह बजे की ट्रेन लेनी है एयरपोर्ट जाने के लिए।
          विदा की बेला !
          हम ठीक चार बजे उठे। मुंह हाथ धोया।  सामाँन तो रात को ही बाँध  लिया था।  चाय पीने का समय नहीं था।  चलते समय हमें उस मंचूरियन स्त्री ने एक एक कमर -पेटी ,जो कपडे की बनी थी और जिसपर नीले रंग का फूल बना था ,उपहार में दी।  हिसाब करते समय ही हमने उसको टिप दी थी।
         सामान लेकर हम बाहर आये तो सामने वाली दूकान की बूढ़ी मालकिन दूकान खोल रही थी।  शटर उठाने के बाद उसने चारों दिशाओं में झुक झुक कर प्रणाम किया।  उसके बाद अपनी डेस्क पर गयी।  उसके दाएं हाथ के पास एक आला बना था जिसमे एक नारी मूर्ती सुनहरे वस्त्रों से सजी थी।  उसपर एक्रिलिक के फूलों की सजावट की हुई थी।  दुकान वाली ने उसकी पूजा की। अगरबत्तियां जलाईं। माथा नवाकर कुछ बुदबुदाई फिर हमसे कहा कि जो लेना है लो। एक जोड़ी खड़ाऊँ हमने उठाये और पैसे चुकाए। स्त्री ने वह पैसे माथे से लगाए और कोई मन्त्र बुदबुदाते हुए टिल खोलकर उसमे रखे।  मेरी नज़र उसकी दूकान के बाहर टंगे एक गुच्छे पर गयी जिसमे नन्हा सा झाड़ू , एक कपडे की गुड़िया ,और जाने क्या क्या बंधा हुआ था।  मेरे पूछने पर वह सकुचाई परन्तु इशारों से और हाथ जोड़कर मुझे समझाया की यह उसकी पूजा है गुड लक के लिए।  अन्य दुकानों के बाहर भी यह सब अलग अलग वस्तुओं के नज़रबट्टू टंगे हुए दिखे।  उसके साथवाली बाल्टी और लोटा लेकर अपनी दहलीज धो रही थी। हमें देखकर मुस्कुरा दी और नमस्ते किया।  हमारी मंचूरियन मैनेजर ने गले लगाकर हमको विदा किया।
           ट्रेन समय से मिल गयी।  टोक्यो के किसी सेंट्रल स्टेशन से हमने एयर पोर्ट जाने वाली ट्रेन बदली और हम वापिस अपनी अंग्रेजी दुनिया में आ गए।  सुबह के ग्यारह बजे प्रस्थान किया। खिड़की से बाहर फिजी माउंटेन की चोटियाँ बर्फ और बादलों से ढकी थीं।  जहाज साइबेरिया की ओर जा रहा था।

*कादम्बरी मेहरा

नाम :-- कादम्बरी मेहरा जन्मस्थान :-- दिल्ली शिक्षा :-- एम् . ए . अंग्रेजी साहित्य १९६५ , पी जी सी ई लन्दन , स्नातक गणित लन्दन भाषाज्ञान :-- हिंदी , अंग्रेजी एवं पंजाबी बोली कार्यक्षेत्र ;-- अध्यापन मुख्य धारा , सेकेंडरी एवं प्रारम्भिक , ३० वर्ष , लन्दन कृतियाँ :-- कुछ जग की ( कहानी संग्रह ) २००२ स्टार प्रकाशन .हिंद पॉकेट बुक्स , दरियागंज , नई दिल्ली पथ के फूल ( कहानी संग्रह ) २००९ सामायिक प्रकाशन , जठ्वाडा , दरियागंज , नई दिल्ली ( सम्प्रति म ० सायाजी विश्वविद्यालय द्वारा हिंदी एम् . ए . के पाठ्यक्रम में निर्धारित ) रंगों के उस पार ( कहानी संग्रह ) २०१० मनसा प्रकाशन , गोमती नगर , लखनऊ सम्मान :-- एक्सेल्नेट , कानपूर द्वारा सम्मानित २००५ भारतेंदु हरिश्चंद्र सम्मान हिंदी संस्थान लखनऊ २००९ पद्मानंद साहित्य सम्मान ,२०१० , कथा यूं के , लन्दन अखिल भारत वैचारिक क्रान्ति मंच सम्मान २०११ लखनऊ संपर्क :-- ३५ द. एवेन्यू , चीम , सरे , यूं . के . एस एम् २ ७ क्यू ए मैं बचपन से ही लेखन में अच्छी थी। एक कहानी '' आज ''नामक अखबार बनारस से छपी थी। परन्तु उसे कोई सराहना घरवालों से नहीं मिली। पढ़ाई पर जोर देने के लिए कहा गया। अध्यापिकाओं के कहने पर स्कूल की वार्षिक पत्रिकाओं से आगे नहीं बढ़ पाई। आगे का जीवन शुद्ध भारतीय गृहणी का चरित्र निभाते बीता। लंदन आने पर अध्यापन की नौकरी की। अवकाश ग्रहण करने के बाद कलम से दोस्ती कर ली। जीवन की सभी बटोर समेट ,खट्टे मीठे अनुभव ,अध्ययन ,रुचियाँ आदि कलम के कन्धों पर डालकर मैंने अपनी दिशा पकड़ ली। संसार में रहते हुए भी मैं एक यायावर से अधिक कुछ नहीं। लेखन मेरा समय बिताने का आधार है। कोई भी प्रबुद्ध श्रोता मिल जाए तो मुझे लेखन के माध्यम से अपनी बात सुनाना अच्छा लगता है। मेरी चार किताबें छपने का इन्तजार कर रही हैं। ई मेल kadamehra@gmail.com