लघुकथा

स्टार्ट अप

मेरे यहां काम करने वाली बाई का पति एक नम्बर का शराबी था। बाई रोज आकर मेरी पत्नी के सामने अपने शराबी पति का दुखड़ा रोती थी।
एक दिन मैंने उससे कहा कि तुम कल अपने पति को साथ लेकर आना। अगले दिन मैंने उसके पति को शराब के ख़तरों के बारे में बहुत समझाया और कुछ काम करने की सलाह दी। उसने सिर झुका कर कहा- “बाबूजी, पैसे कहां हैं। कोई धंधा भी करूं तो कैसे?
मैंने अपनी बातों का असर होता हुआ देखकर उससे कहा- “तुम पैसे की चिंता मत करो, सिर्फ ईमानदारी से मन लगाकर काम करो।” अगले दिन मैंने उसके लिए एक ठेले का इंतजाम कर दिया और कुछ सब्जियां खरीद कर उसे बाजार में बेचने के लिए भेजा। शाम तक वह सारी सब्जियां बेच चुका था। खाली ठेला लेकर वह अपनी पत्नी के साथ मेरे पास आया। दोनों बहुत खुश नजर आ रहे थे।
“बाबूजी, पूरे चौदह सौ की बिक्री हुई है”- उसकी आवाज से मेरी तन्द्रा भंग हुई।
“अरे वाह, तुमने तो कमाल कर दिया”- उसे शाबाशी देते हुए कहा। मैंने हिसाब लगाया कि सब्जियां कुल एक हजार की थी। मतलब चार सौ रुपए का मुनाफा।
वह सारे पैसे मेरी ओर‌ बढ़ाने लगा। मैंने कहा- “इसे अपने पास रखो। और हां, कल सुबह मंडी जाकर फिर हजार रूपए की सब्जियां ले आना और ऐसे ही बेचना। बाकी चार सौ रूपए में आज बच्चों के लिए मिठाई और कुछ घर के सामान ले लेना। जो पैसे बचें वह ईमानदारी से अपनी पत्नी को दे देना। और कल खर्चे का पूरा हिसाब मुझे देना।”
अपनी पत्नी को प्यार से देखते हुए उसने कहा- “साहब, मैं शराब को हाथ भी नहीं लगाऊंगा।” उसके संकल्प में दृढ़ता नजर आ रही थी।
चौदह सौ रूपए हाथ में लिए उन दोनों का रोम-रोम मुझे दुआएं दे रहा था। रिटायरमेंट के बाद मुझे भी अपने भविष्य का स्टार्ट अप सफल होता नजर आने लगा।

— विनोद प्रसाद

विनोद प्रसाद

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