वतर्मान में शिवा जी महाराज की प्रासंगिकता:-
छत्रपति शिवाजी महाराज जी जितने प्रासंगिक सोलहवीं शताब्दी में थे उतने ही प्रासंगिक आज भी हैं, जिस प्रकार की चुनौतियों से समाज उस समय जूझ रहा था कमोबेश कुछ चुनौती आज भी सभी के सामने है। उस समय देश विदेशी आक्रांताओं से लड़ रहा था तो वर्तमान में देश पड़ोसी कुछ देशों की कुटिलताओं से लड़ रहा है उस समय भी देश का मूल समाज सुप्तावस्था में था और आज भी समाज अभी पूर्ण रूप से जाग्रत नही हुआ है। और तब शिवा जी महाराज ने समाज, राष्ट्र की उन्नति में कार्य किया। शिवा जी महाराज के लिये कहा जाये तो वे एक अवतारी पुरूष थे। छत्रपति शिवाजी महाराज के लिए स्वामी विवेकानंद जी ने कहा है कि-
“दावा द्रुम दण्ड पर, चिता मृग झुण्ड पर,
भूषन वितुण्ड पर, जैसे मृगराज हैं
तेज तिमि अंश पर,कान्हा जिमि कंश पर,
त्यों मलेछ वंश पर शेर शिवराज हैं।”
देशभक्ति सीखनी है तो शिवा जी महाराज से सीखिये, शासन व्यवस्था सीखना है तो शिवा जी महाराज से, न्याय, युद्ध कला, वाणिज्यिक, शिक्षा, स्वाभिमान, कूटनीति, चरित्र, सम्मान यह सब सीखना है तो शिवा जी महाराज जी के जीवन से सीख सकते हैं। शिवा जी महाराज का जन्म 19 फरवरी सन 1630 ईसवी को शिवनेरी के दुर्ग में हुआ था। शिवा जी की माता जीजाबाई ने ही शिवा जी को शिक्षित देशभक्त, स्वाभिमानी बनाया।
छत्रपति शिवाजी महाराज का नाम लेते ही दिमाग में एक ऐसे साहसी पुरुष की छवि बनती है जो युद्ध कौशल में पूरी तरह से पारंगत हो। शिवाजी ने औरंगजेब जैसे शक्तिशाली मुगल सम्राट की विशाल सेना से कई बार टक्कर ली। उनकी विशेषता केवल युद्ध में ही नहीं थी बल्कि वह भारत के एक कुशल प्रशासक और रणनीतिकार के रूप में भी जाने जाते हैं। छत्रपति शिवाजी महाराज बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। उन्हेानें विद्वान, दार्शनिक, उच्च चरित्र, वीर सैनिक कूटनीतिज्ञ, आदर्श राजनीतिज्ञ, तपस्वी और सन्यासी तथा कर्तव्यनिष्ठ राजा के गुणों को प्रदर्शित किया। उन्होंने अपनी कुशल शासन व्यवस्था से तथा अपने राजस्व सिद्धान्तों से सुदृढ़ लोकप्रिय और न्याय पर आधारित सहिष्णु साम्राज्य का निर्माण किया।
शिवाजी ने भू-राजस्व एवं प्रशासन के क्षेत्र में अनेक कदम उठाए। राजस्व व्यवस्था के मामले में अन्य शासकों की तुलना में शिवाजी ने एक आदर्श व्यवस्था बनाई। शिवाजी ने राजस्व व्यवस्था को लेकर एक सही मानक इकाई बनाया था जिसके अनुसार रस्सी के माप के स्थान पर काठी और मानक छड़ी का प्रयोग आरंभ करवाया। यह व्यवस्था काफी सुगम थी। शिवाजी की शासन व्यवस्था कुछ इस प्रकार थी-
केन्द्रीय प्रशासन
शिवाजी एक निरंकुश शासक थे। लेकिन व्यवहार में जरा भी निरंकुश नहीं थे। शासन की तीनों शक्तियां सम्राट में निहित होने पर भी तीनों विभाग अलग-अलग थे और उनके सक्षम अधिकारी थे। उनका नियंत्रण, जांच, नियुक्ति और अपदस्थता सम्राट पर निर्भर थी। सम्राट के परामर्श के लिये मंत्रि-परिषद् होती थी जिसका शासन में महत्वपूर्ण स्थान था। इसकी नियुक्ति भी सम्राट ही करता था। सेना का प्रधान भी सम्राट था। शिवाजी मंत्रियो और अधिकारियों को बहुत महत्व देते थे। तथा जनहित और न्यायप्रिय मंत्री का अत्यधिक सम्मान करते थे।
अष्ट प्रधान
अपने राज्य के कल्याणकारी प्रशासन तंत्र के सर्व प्रमुख प्रधान शिवाजी स्वंय थे। सारी शक्तियां उन्हीं में केन्द्रित थीं किन्तु उनकी निरंकुशता, उदारता और जनकल्याण की भावना से युक्त थी। उनके सभी मंत्री, अधिकारी, सेनानायक आदि उन्हीं के प्रति उत्तरदायी थे। शासन में शिवाजी को सहायता देने के लिए आठ मंत्री या सलाहकार होते थे जिन्हें अष्ट प्रधान कहा गया है। इनके नाम और कर्त्तव्य इस प्रकार थे-
1. पेशवा (प्रधानमंत्री)
यह राज्य का प्रधानमंत्री होता था। शासन की कार्यकुशलता, अधिकारियों के बीच संतुलन तथा जन कल्याण का ध्यान रखता था। शिवाजी की अनुपस्थिति में वही उनका प्रतिनिधि होता था।
2. आमात्य (वित्त मंत्री)
इसका कार्य आय-व्यय का विवरण रखना तथा उसकी सूचना शिवाजी को देना था।
3. मन्त्री
यह शिवाजी का व्यक्तिगत सहायक या सलाहकार था। शिवाजी के गृह प्रबन्ध तथा सुरक्षा आदि का उत्तरदायित्व उसी पर था।
4. सुमन्त (विदेश मंत्री)
विदेशी मामलों में यह मन्त्री शिवाजी को सलाह देता था। विदेशी राजदूतों, प्रतिनिधियों का स्वागत एंव अन्य उत्तरदायित्व उसी पर था
5. सचिव (चिटनीस)
पत्र-व्यवहार हेतु प्रारूप आदि तैयार करना तथा परगनों में आय-व्यय का हिसाब सचिव रखता था।
6. सेनापति
सेना का भर्ती, संगठन, अनुशासन तथा रसद आदि की व्यवस्था देखना इसका मुख्य कार्य था। रण-क्षेत्र में आवश्यक हो तो राजा को सलाह भी देता था।
7. पंडित राव
प्रजा के नैतिक चरित्र को ऊपर उठाने हेतु प्रयत्नशील रहना, दान और दीन-दुखियों की मदद की व्यवस्था करना तथा जातीय झगड़ों को निपटाना इसके प्रमुख कर्त्तव्य थे।
8. न्यायाधीश
दीवानी और फौजदारी मुकदमों और झगड़ों पर न्याय देता था।
अष्टप्रधान के रूप में इन मंत्रियों के पद एंव दायित्वों का विकास शिवाजी के राज्य विस्तार के साथ होता रहा। राज्याभिषेक के समय ये आठों पद मौजूद थे। आज के उत्तरदायी मंत्रिमंडल की तुलना अष्ट प्रधान से नहीं करना चाहिए। ये सभी प्रधान राजा को विभिन्न मामलों में सलाह देते थे तथा उनकी आज्ञाओं का पालन करवाते थे। अपने विभाग की व्यवस्था सुचारू रूप से चलाना उनका प्राथमिक दायित्व था शिवाजी अष्ट प्रधान को उचित इज्जत और सम्मान देते थे। उन्हें नगद वेतन दिया जाता था।
प्रांतीय शासन
शिवाजी का राज्य चार प्रांतों में विभाजित था। प्रत्येक प्रांत एक वाइसराय के अधिकार में था। इन प्रांतों के अलावा शिवाजी ने कनारा का पहाड़ी प्रदेश दक्षिण धारवार जिला और स्पेन्धा तथा वेदनोर को जीत लिया था। प्रत्येक प्रांत कई परगनों में विभक्त था। शिवाजी के काल में राज्य में दो प्रकार के प्रदेश थे। एक तो वे थे जो कि उनके अधीन थे स्वराज्य कहलाते थे। दूसरे, मुगलों के अधीन प्रदेश जिन पर मराठों का वास्तविक रूप में अधिकार था, मुगलाई कहलाते थे। स्वराज्य को तीन प्रांतों में विभाजित किया था, जो सूबेदारो के अधीन थे। जागीरों के स्थान पर उनकों नगद वेतन दिया जाता था।
सेना की व्यवस्था
शिवाजी के पास एक विशाल और शक्तिशाली सेना थी जिसकी उन्होंने सुन्दर व्यवस्था की थी। इस सेना में निम्न विभाग थे-
(अ) अश्वारोही
अश्वरोहियों में ‘पगा‘ सैनिक थे। इन्हें अश्व और शस्त्र राज्य देता था। इनमें 25 सैनिकों की एक टुकड़ी और इनका प्रमुख हवलदार होता था। पांच हवलदारों पर एक जमादार और 10 जमादारों पर एक हजारी होता था। पगा का सर्वोच्च पदाधिकारी ‘पंच हजारी‘ होता था। प्रधान सेनापति सरनोबत कहलाता था। दूसरी सेना भी सरनोबत के अधीन थी परन्तु इसे शस्त्र और अश्वों की व्यवस्था स्वंय करना पड़ती थी। इन्हें ‘सिलहदार‘ कहते थे।
(ब) पैदल
पैदलों में छोटी से छोटी टुकड़ी ‘पायल‘ कहलाती थी तथा इनका अधिकारी ‘नायक‘ होता था। नायकों के ऊपर हवलदार, जुमलादार और फिर एक हजारी होते थे। इसमें सर्वोच्च अधिकारी सात हजारी होता था। शिवाजी के पास 2 लाख पैदल सैनिक थे तथा सरनोबत इनका प्रधान था।
(स) अंगरक्षक
शिवाजी के पास दो हजार सैनिकों की चुनी हुई अंगरक्षक सेना थी। इनके पास अन्य सैनिकों की अपेक्षा अधिक अच्छे शस्त्र और अश्व होते थे। आक्रमण पर जाने के पूर्व सैनिकों के समान की सूची बनाई जाती थी और आक्रमण से लौटने के बाद उनकी जांच होती थी और अतिरिक्त सामान को राजकोष में जमा करवा दिया जाता था। इनके अतिरिक्त शक्तिशाली तोपखाना भी सेना का भाग था। शिवाजी ने सामुद्रिक जहाजी बेड़े का भी निर्माण कर लिया था।
भूमि कर व्यवस्था
शिवाजी भूमि कर क्षेत्र का अनुमान लगाकर लेते थे। प्रत्येक गांव का क्षेत्रफल रखा जाता था और प्रत्येक बीघे की उपज का अनुमान लगाया जाता था, उपज का 2/5 भाग राज्य ले लेता था। नए किसानों को बीज और पशुओ की सहायता दी जाती थी, जिसका मूल्य सरकार कुछ किश्तों में वसूल कर लेती थी। भूमि कर नगद या अनाज के रूप में लिया जाता था। राज्य में कृषि को प्रोत्साहन दिया जाता था। भूमि कर प्रणाली रैयतवाडी प्रणाली थी। वे जमींदारी प्रथा के विरूद्ध थे। वे नहीं चाहते थे कि जमीदार, किसानों पर राजनीतिक प्रभुत्व रख सकें।
चौथ और सरदेशमुखी
शिवाजी की आय का मुख्य साधन चौथ कर था। वह पड़ौसी राज्यों का चौथा भाग होता था, जिसे वसूल करने के लिए शिवाजी उन पर आक्रमण करते थे। चौथ पर साल वसूल करते थे। शिवाजी की आय का दूसरा साधन सरदेशमुखी था। यह राज्यों की आय का 1/10 भाग होता था।
न्याय-व्यवस्था
शिवाजी की न्याय व्यवस्था निष्पक्ष तथा धर्मसहिष्णु थी। शिवाजी के राज्य में प्रधान न्यायाधीश इनके अधीन मुकदमें और पंचायते रहती थी। दीवानी और फौजदारी न्यायालायों की अपील प्रधान न्यायाधीश के पास होती थी। न्याय हिन्दू-दर्शन, मनुस्मृति, प्राचीन परम्पराओं के आधार पर होता था। मुस्लिमों के लिये न्याय उनके नियमों के आधार पर किया जाता था परन्तु हिन्दू और मुस्लिम के सयुंक्त प्रकरण में सार्वजनिक हित तथा देश-हित में न्याय किये जाते थे।
शिवाजी का शासक के रूप में मूल्यांकन
शिवाजी ने अपनी उच्च कोटि की शासन-व्यवस्था से यह साबित कर दिया कि वे लुटेरे और डाकु नही थे। वे विजेता मात्र थे। वे एक कुशल शासक थे।
उनका राज्य स्थाई नहीं हो सका उनके शासन काल में मराठा शक्ति का निर्माण हुआ। शिवाजी के कारण ही मुगल शासन का पतन हुआ। शिवाजी एक चतुर सेनापति एंव सफल कूटनीतिज्ञ थे। उनके आदर्श महान थे। उन्होंने मराठो मे देश भक्ति और राष्ट्रीयता की भावना को जागृत किया। और इस लिये शिवा जी महाराज की नीतियों, कार्यकुशलता की प्रासंगिकता आज भी है।