मुक्तिधाम
गांव के पीछे, नदी किनारे,
देखा मैंने वह मुक्तिधाम।
आंसू की बरसात थी फिर भी,
जल रही थी, लकड़ियां तमाम।।
इक शरीर था, बिना जान के,
जो लेटा था, बीच चिता के।
किसी को ग़म, भाई था गुज़रा,
कोई व्याकुल था, बिना पिता के।
वहाँ खड़ा मैं,देख रहा था,
कुछ हंसते, मुस्काते चेहरे।
ये तो शायद, लोग वही थे,
जो बिल्कुल पत्थर दिल ठहरे।।
तरह तरह की, बात सुना मैं,
कुछ उसको कहते थे सज्जन।
कुछ कहते, बहुत बुरा था,
पाप कमाया सारा जीवन।।
काया उसकी, राख हो रही,
पर जीवित थे, उसके काम।
कौन से लोक में, वह जाएगा,
प्रश्न चल रहा, ये अविराम।।
चिता की लपटें, जला रही थी,
उस पड़ी हुई, निष्प्राण देह को।
पर क्या वो, जला सकती है,
लोगों के मन के, जलन-स्नेह को।।
वो तो अब, नादान हो चला,
जीवन के अंतिम, सत्य को पाकर।
मुक्तिधाम में, मिलेगी मुक्ति?
सोच रहा था, मैं घर आकर।।
— तुषार शर्मा “नादान”