कविता

साड़ी में क्या ख़ूबसूरत लगती हो

हे प्रिये !
जब पहली बार तुम्हें देखा
तब नजरें ना टिकी
तुम्हारे सुकोमल बदन पर,
हसीं चेहरे पर,
लबों की लालिमा पर,
गोरी कलाइयों पर,
और ना तुम्हारी कोरी जुल्फों पर
नजरें टिकी तो टिकी सिर्फ़ तुम्हारी साड़ी पर।
क्या ख़ूब लगती हो!
बड़ी सुंदर दिखती हो!
जब तुम साड़ी के लिबास में सामने आती हो
तब ऐसा लगता है कि
जैसे पूरी कायनात जमीन पर उतर आई हो।
ये मेरा पहला-पहला प्यार है,
आंखें भी बेकरार है,
तुम्हें साड़ी के लिबास में देखने के लिए,
क्योंकि क्या ख़ूब लगती हो!
बड़ी सुंदर दिखती हो!
जब तुम साड़ी के लिबास में सामने आती हो।
फ़िर भी नज़रें हटा लेता हूं
कहीं तुम्हें मेरी नज़र ना लग जाएं।
ना तुम कोरी जुल्फों में गजरा लगाती हो,
ना गले में मोतियों का हार पहनती हो,
ना हाथों में चूड़ियां पहनती हो,
ना पैरों में पायलिया पहनती हो,
और ना कोई श्रृंगार करती हो
फ़िर भी साड़ी के लिबास में
बड़ी ख़ूबसूरत लगती हो।
यू तो हर लिबास में
तुम सुंदर लगती हो,
लेकिन साड़ी में हद की पार कर देती हो।
इसलिए अक्सर आंखें बंद कर लेता हूं
कहीं तुम्हें मेरी नज़र ना लग जाए।
कितनी खूबसूरत लगती हो तुम!
जब पहनती साड़ी हो तुम।
तुमने साड़ी क्या पहनी
मुझे बेइंतहा मोहब्बत हो गई।
तुम्हारा साड़ी पहनने की शैली भी
काबिल-ए-दाद है।
साड़ी सिर्फ़ तुम्हारा लिबास ही नहीं है,
किंतु साड़ी तुम्हारी एक पहचान है,
तुम्हारे संस्कारों की परिचायक है,
तुम्हारे विचारों का आईना है,
तुम्हारे चरित्र की शोभा है,
तुम्हारे व्यक्तित्व की संपन्नता है।
जब तुम साड़ी के लिबास में होती हो
सूखे पत्तों की बीच
गुलाब की पंखुड़ी-सी लगती हो।
वसंत में तुम
बरखा-बहार-सी लगती हो।
होली में तुम
रंगों की छटा-सी लगती हो।
दीपावली में तुम
रंगों से सजी रंगोली-सी लगती हो।
आशियाने में तुम
सकारात्मक उर्जा-सी लगती हो।
यज्ञ में तुम
पति की वामा-सी लगती हो।
इतना ही नहीं
सच्चे अर्थों में अपने पति की जीवनसंगिनी लगती हो
और पूरे विश्व में जिसने अपनी पहचान बनाई है
ऐसी भारतवर्ष की आदर्श गृहिणी-सी लगती हो।
हे प्रिये !
क्या ख़ूब लगती हो!
बड़ी सुंदर दिखती हो!
जब तुम साड़ी के लिबास में सामने आती हो।
— समीर उपाध्याय

समीर उपाध्याय

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