लघुकथा

अवधारणा

 सविता बड़ी देर से निर्धारित जगह पर उसका इंतजार कर रही थी और बेचैनी से बार बार मोबाईल में समय देख रही थी।
इस बेचैनी के आलम में भी पिछले दिनों घटित घटनाओं को याद कर उसके चेहरे पर बरबस ही मुस्कान खिल गई। उसने सोचा भी नहीं था कि उम्र के इस पड़ाव पर उसके साथ ऐसा भी हो सकता है।
 हुआ यूँ कि समय गुजारने के उद्देश्य से कुछ महीने पहले बच्चों ने फेसबुक पर उसका एकाउंट बना दिया था जिसके जरिए वह कई साहित्यिक समूहों से जुड़ गई और धीरे धीरे स्वयं भी कुछ लिखने लगी थी।
मित्रता निवेदनों को वह लेखनी के प्रशंसक मानकर स्वीकार कर लेती थी और कई बार उनमें से कुछ लोगों से लेखन को लेकर बातचीत भी हो जाती थी, लेकिन उस दिन वह हतप्रभ रह गई थी जब दो तीन दिनों की अनौपचारिक बातचीत के बाद राकेश नाम के एक बीस वर्षीय युवक ने अचानक उससे प्रेम निवेदन कर दिया। वह चाहती तो उसे एक सेकंड में ब्लॉक करके उससे पीछा छुड़ा सकती थी लेकिन अपने प्रति उस लड़के की दिवानगी देखकर वह चाहकर भी उसे ब्लॉक नहीं कर पाई। वह एक शिक्षिका रह चुकी थी और मनोविज्ञान को खूब समझती थी। निराशा व हताशा के चलते वह लड़का कोई अप्रिय कदम न उठा ले उसे इसी बात की अधिक चिंता थी। उसने उसे प्रेम से दुनियादारी समझाने का प्रयास किया, अपनी बड़ी उम्र का हवाला देते हुए बताया कि उसके बड़े बेटे की उम्र भी उससे कहीं ज्यादा है, वह भी तीस के पार हो चला है लेकिन वह लड़का अपनी बात पर अडिग रहा और बार बार उससे उसका निजी नंबर माँगता रहा जो वह किसी से साझा नहीं करती थी।
अंत में थकहार कर उसने कह दिया कि वह एक बार उससे मिलना चाहती है, इसके बाद ही उसे अपना नंबर देगी।
 वह तय समय पर तय जगह पर पहुँच गई थी लेकिन राकेश अभी तक नदारद था। वापस जाने के लिए जैसे ही वह मुड़ी, पीछे से किसी को अपना नाम पुकारते सुनकर रुक गई और पलटकर देखा। उसे पुकारनेवाला राकेश ही था जो तेज तेज कदमों से उसकी तरफ ही बढ़ रहा था।
शिकायती लहजे में उसे देखते ही वह बोली, “इतनी देर कर दी ? चलो..चलो जल्दी करो। पहले ही इतनी देर हो गई है।”कहते हुए वह खुद भी उसकी तरफ बढ़ गई।
उसे अपनी तरफ बढ़ते देखकर राकेश चौंक पड़ा, “कैसी देर ? कहाँ जाना है ?”
“मंदिर …और कहाँ ? शादी तो मंदिर में ही करनी है न ?…कि बारात लेकर आओगे मेरे घर ?” सविता की बातें सुनकर राकेश के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं।
 चाहकर भी वह कुछ बोल नहीं पा रहा था। मनोविज्ञान को बखूबी समझने वाली सविता ने सूक्ष्मता से राकेश के चेहरे के हर भाव को पढ़ने का प्रयास करते हुए अपना हमला जारी रखा, “चलो, शादी के बारे में बाद में तय कर लेंगे, लेकिन ये तो बताओ कि शादी के बाद तुम्हारी मम्मी मेरी सेवा करने को तो तैयार हैं न ? वो क्या है न कि, मेरी उम्र तो तुम जानते ही हो। तुम्हारी खुशी के लिए मैं अपना बेटा बहू छोड़कर आऊँ तो कम से आश्वस्त तो रहूँ कि उनके बिना भी मुझे उनसे अच्छी सेवा करने वाले मिल जाएँगे।”
एक पल रुककर उसने राकेश की भावभंगिमा का जायजा लिया और फिर पूछा, “क्या हो गया राकेश ? खामोश क्यों हो गए हो ? समय निकला जा रहा है।”
“कुछ नहीं मैम ! मुझे एक काम याद आ गया। शाम को बात करता हूँ।” कहकर वह जाने के लिए मुड़ा।
“मेरा फोन नंबर तो लेते जाओ !” सविता चिल्लाई लेकिन बिना उसकी बात सुने राकेश भीड़ में खो गया। सविता के होठों पर विजयी मुस्कान फैल गई। सहज सुलभ वस्तु के प्रति इंसानी उदासीनता की अवधारणा एक बार फिर सही साबित हुई थी।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।