शादी बनाम फ़ोटोग्राफी
अरे ! छोड़िए भी ‘शादी’ कभी ‘सादी’ हो ही नहीं सकती।’शादी’ के नाम पर कुछ भी प्रदर्शन करने की मनमानी का एक नाम ‘शादी’ है। यों तो ये ‘शादी’ शब्द अरबी से फ़ारसी औऱ फ़ारसी से उर्दू की गलियों में घूमते हुए हिंदुस्तानी तथा हिंदी में आया है। ‘शाद’ शब्द प्रसन्नता ,हर्ष ,खुशी आदि के अर्थ में प्रयुक्त होता है ;किन्तु ‘शादी’ का रूढ़ प्रयोग ‘विवाह’ के लिए ही प्रचलन में है।
आज ‘शादी’ शब्द की चर्चा एक अन्य रँग-रूप में करने की सोच रहा हूँ। जिस ‘शादी’ को जितना सादी कहा जाता है ,उसमें सादगी औऱ सादा पन की खुशबू दाल में हींग के छोंक के बराबर भी प्रतीत नहीं होती।कुछ युवतियों के लिए इसके मानी केवल मँहगे लंहगे,चुनरी ,ब्लाउज , कीमती गहने और हनीमून से ज़्यादा कुछ भी नहीं है।सादापन की धज्जियाँ बिखेरना ही इसका मुख्य मन्तव्य उन्हें लगता है । वही बात दूल्हे के लिए भी उतनी ही सत्य है ,जितनी किसी दुल्हन के लिए।शादी भी कोई बार -बार थोड़े ही होती है ? कठपुतलों की कितनी भी हो जाएँ ,पर कैमरों की नहीं होतीं। बल्ले -बल्ले तो उन्हीं की है। उनके आगे पंडित जी भी लल्लू ही हैं । अब सारा ज्ञान और विधि -विधान का सरंजाम उन्हीं के लेंस -कमलों में है।
अब शादियाँ दूल्हा दुल्हन की नहीं ; फोटोग्राफरों, वीडियोग्राफरों,ड्रोन कैमरों की होती हैं। दूल्हा दुल्हन तो सूत्रधारों की कठपुतली बने हुए नाचते दिखाई देते हैं। उनकी अंगुलियों के संकेतों के आदेश स्वीकार करते हुए।कभी हाथों में हाथ डाले हुए, कभी दूल्हे की बाँहों में दुल्हन को ‘यू’ या ‘एल’ के आकार में झुलाते हुए, कभी तिरछी नज़रों से दुल्हन द्वारा दूल्हे को प्यार भरी दृष्टि से निहरवाते हुए , कभी दूल्हे की द्वारा गोद में उठाए हुए ,प्रेमालिंगन में लिपटे -चिपटे हुए : ऐसी ही विविध रोमांचक मुद्राओं में सार्वजनिक मंचीय प्रदर्शन करते हुए दिखाए जाते हैं। लगता है कि ये शादी नहीं किसी फ़िल्म की शूटिंग हो रही है। हया और शर्म तो उड़ चुकी है। उड़नछू हो चुकी है। पिता ,चाचा, ताऊ , ससुर , सास , सब देख रहे हैं औऱ अपने लाडलों की शूटिंग दृश्य से खिलखिलाकर कर मुंह बाए देख रहे हैं।बेशर्माई की इन्तहां ही हो रही है ।बरात तो बारहों रंग की भरी हुई परात है।जिसमें हर रंग के लोग मजे लेने को उतारू हैं। जो काम कभी बंद कक्षों में भी करते हुए भी दुल्हन शरमाती होगी ,आज खुलेआम मुम्बइया शूटिंग का आनन्द ले ही नहीं रही , आम जनता को लुटा भी रही हैं। बिना पैसे ,बिना टिकिट औऱ बिना किसी प्रतिबंध या नियंत्रण की जिंदा फ़िल्म देखनी हो ,तो अत्याधुनिक पीढ़ी की इन ‘शादियों’ की शूटिंग में देखिए।
आज की शादियों में मुख्य नायक- नायिका दूल्हा दुल्हन नहीं; फ़ोटोग्राफर ही हैं। दरवाजे,भाँवरों आदि के मुहूर्त का कोई महत्त्व नहीं है। कौन पूछता है पंडित जी या वर कन्या के घर वालों को ! उनके जाने सब भाड़ में जाएँ। सबसे मुख्य काम ड्रोन कैमरों, मोबाइल फोनों, अन्य कैमरों से फ़ोटो खींचना और वीडियो बनाना ही शेष रह गया है। ये शादी न होकर एक मज़ाक की शूटिंग से अधिक कुछ भी दिखाई नहीं देती है। नकली अदाएं और दिखावटी हाव -भाव के बिम्ब- अंकन का यह जीवंत ड्रामा है। सारी रात आशीर्वादों का इतना जमघट हो जाता है कि बेचारे कठपुतले संभाल भी नहीं पाते। दादी- बाबा (यदि शेष हों), पिता -माता, चाचा -चाची, भाई-भाभी , ताऊ-ताई, फूफा -बुआ , जीजा -जीजी , इष्ट -मित्रों के ढेरों आशीर्वादों के गट्ठर संभाले नहीं जाते। सौ -सौ के नोटों को नचाते ,उड़ाते ,घुमाते हुए दृश्य कैमरों की रीलों में रियल लाइफ का मजा देते हैं। इसी कैमरेबाजी का नाम अब शादी रह गया है।
जमाना बहुत आगे चला गया। हर आदमी अपना इतिहास बनाने में लगा है। तो दूल्हा दुल्हन के बहाने यदि कैमरे अपना इतिहास न बनाएँ तो आश्चर्य ही क्या है? कुल मिलाकर दूल्हा -दुल्हन तो मात्र कठपुतलियां ही हैं। सारा दारोमदार तो कैमरेबाजी पर टिका हुआ है। वही तथाकथित ‘सादी’ (शादी) के सर्वेसर्वा हैं। बरात का हर आदमी -औरत अपनी गर्दन ऊँची करके , घूँघट अथवा मास्क हटाकर फ़ोटो खिंचवा रहा है। क्रीम इस प्रकार लगाई गई है कि जैसे उसकी खुशबू फ़ोटो में भी रच -बस जाएगी।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’