लघुकथा

मुंहबोला भाई

“आप निहालू प्लंबर्स के यहां से बोल रहे हैं?” वैशाली ने पूछा.
“जी हां, मैं ही निहालू प्लंबर हूं, कहिए.”
“हमारे वाशरूम का नल खराब हो गया है, कब ठीक करने आ सकते हैं?” वैशाली के मधुर कंठ से मानो सरस्वती बोलती लग रही थीं. निहालू निहाल हो गया.
“आप पता बताइए.” निहालू ने भी स्वर में कोमलता लाते हुए कहा.
“जी मैं आधे घंटे में आ सकता हूं.” पता सुनकर उसने कहा.
ठीक आधे घंटे में डोर बेल बजी. वैशाली ने दरवाजा खोला.
“जी, मैं निहालू प्लंबर.”
निहालू वैशाली को एकटक देखता ही रह गया.
“आइए.”
अंदर आने का इशारा करके वैशाली उसे वाशरूम की तरफ ले जाने लगी.
“पहले एक बात बताइए, हम आपसे पहले कहीं मिले हैं?” निहालू ने नल ठीक करने से पहले पूछा. उसके स्वर में उत्सुकता स्पष्ट झलक रही थी.
“मुझे तो ऐसा नहीं लग रहा!” वैशाली के जवाब से निहालू बुझ-सा गया.
वह नल ठीक करने लग गया, पर उसका ध्यान वैशाली की ओर ही लगा रहा.
“चेहरा कुछ जाना-पहचाना-सा लग रहा है!” उसके मन की घंटी बजी. मुन्नी होती तो वह भी इतनी बड़ी होती! 21 साल पहले की बात है न!
“कब और कहां?” उसका सिरा नहीं मिल रहा था.
“अरे, यह तो अपनी मुन्नी है!” अचानक उसकी नजर बेडरूम में लगी तस्वीर पर पड़ी. बहुत सारी तस्वीरों के बीचों-बीच उसी चीथड़ों वाली फ्रॉक में मुन्नी ध्रुव तारे की तरह चमक रही थी.
उसके लिए ध्रुव तारा ही तो थी अब मुन्नी.
“जब मेरे हाथ में थी, तब तो मैं ही उसे फुटपाथ पर रोता छोड़कर भाग निकला था”. उसे खुद पर अफसोस लग रहा था.
“करता भी क्या! एक ही रात में मां-बापू फुटपाथ की कंपकंपाती ठंड में चल बसे थे. मैं आठ साल का था. पहले तो कहीं कोई काम ही नहीं दे रहा था. काम मिला भी तो इतना भारी कि, एक ही दिन में जान सांसत में आ गई.” वह नहीं, उसकी बेबसी बोल रही थी.
“सोचा था, इसको पलना होगा तो कोई तो इसे पाल ही लेगा. और मैं क्या करता? कोई चारा जो न था!”
“फिर छिपकर देखा था, खाते-पीते घर के कोई पति-पत्नी बड़े प्यार से उसे उठाकर ले गए थे. उस दिन के बाद से न तो मुन्नी याद रही न मिली.” खून का रिश्ता सुबक रहा था.
“अब उसको बताऊं या नहीं?” उसके मन में हलचल मची थी.
“नहीं.” उसके मन ने गवाही दी. वह उसकी खुशनुमा जिंदगी में भूचाल जो नहीं लाना चाहता था.
नल भी ठीक हो गया था और उसका मन भी.
“कितने रुपये हुए भैय्या?” वैशाली ने उससे पूछा.
रुपयों वाले गोरे-गोरे हाथ के बीचों-बीच निहालू ने उसका काला तिल भी देख लिया था. वही तो उसकी असली पहचान थी!
“आपने मुझे भैय्या कहा है, बस भैय्या ही रहने दीजिए. हर रक्षा बंधन को मैं राखी बंधवाने आ जाया करूंगा. 21 साल से मैं बहिन को तरस रहा हूं. मुझे मुंहबोला भाई ही समझ लीजिए.” कहकर वह तेजी से निकल गया.
वैशाली भी तो रक्षा बंधन और भाई दूज के दिन भाई के बिना उदास हो जाती थी. आज भाई तो मिल गया! मुंहबोला ही सही!
वह उसको जाता हुआ देखती रही, जब तक वह आंखों से ओझल नहीं हो गया.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

4 thoughts on “मुंहबोला भाई

  • *लीला तिवानी

    निहालू भी मजदूर ही है. जरा-सा नल खराब हो जाए तो प्लंबर की सेवाओं की जरूरत पड़ जाती है. जब तक प्लंबर आए-आए, बहुत-सा पानी व्यर्थ बह जाता है अथवा में बंद करने के कारण पानी के बिना हम परेशान हो जाते हैं. इसी तरह मकान बनाने वाले, लकड़ी का काम करने वाले, सफाई का काम करने वाले, बिजली का काम करने वाले आदि हजारों तरह के मजदूर हैं. मजूदरों के हक के प्रति जागरूकता के लिए श्रमिक दिवस मनाया जाता है.

    • *लीला तिवानी

      राष्ट्रप्रेमी भाई, सचमुच आप साहित्यप्रेमी भी हैं. कथा का संज्ञान लेने, इतने त्वरित, सार्थक व हार्दिक कामेंट के लिए आपका हार्दिक अभिनंदन.

  • *लीला तिवानी

    निहालू का अर्थ है- हर तरह से तृप्त, सफल–मनोरथ, प्रसन्न एवं संतुष्ट. फुटपाथ पर रहने-पलने वाला निहालू एक समय बेबसी में बहिन रामभरोसे फुटपाथ पर छोड़ गया था. फिर वैशाली को देखकर उलझन में पड़ गया. अंत में सब उलझनें सुलझ गईं और वह तृप्त, सफल–मनोरथ, प्रसन्न एवं संतुष्ट हो गया. किसी को उलझन में उलझे देखकर व्यंग्य से भी निहालू कहा जाता है.

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