सामाजिक

बच्चों को कच्ची उम्र में दीक्षा देना कितना उचित है

सदियों से चला आ रहा सनातन सत्य है की धर्मं और भगवान के नाम पर डरा कर इंसान से आप कुछ भी करवा सकते हो, इसमें कोई दो राय नहीं। पर धर्मं के मार्ग पर चलना, अध्यात्म को समझना और मोक्ष पाने के लिए सदाचार से जीना क्या संसार मे रहकर संभव नहीं? बिलकुल संभव है आप तन, मन धन से किसीका बुरा न चाहो, किसीके साथ गलत न करों और छल कपट से दूर रहो तो एक सन्यासी धर्म का पालन ही कहलाएगा, इसके लिए संसार त्याग कर कष्टदायक राह पर चल निकलना जरूरी तो नहीं। खासकर कुछ संप्रदायों में बच्चों को उस राह पर चलने के लिए छोड़ दिया जाता है, जिनके बारे में बच्चों को कोई ज्ञान ही नहीं।
कृष्ण सबसे बड़े सन्यासी थे, पर संसार में रहकर उन्होंने अपना सन्यासी धर्म निभाया श्रीकृष्ण की 8 पत्नियां थी उनकी सभी पत्नियों के दस-दस पुत्र और एक-एक पुत्री भी उत्पन्न हुई। और तथाकथित तौर पर उनके 1 लाख 61 हजार 80 पुत्र और 16 हजार 108 कन्याएं थीं। इस प्रकार श्री कृष्ण का भारत का सबसे बड़ा परिवार था। कृष्ण ने अपने गृहस्थ जीवन के हर धर्म का समुचित पालन किया, फिर भी कृष्ण वितरागी थे।
धर्मं, अध्यात्म, मोक्ष जैसी गहरी चीज़ों को आज तक कोई ठीक से समझ नहीं पाया। अच्छे-अच्छे ज्ञानी महाज्ञानी अध्यात्म को नहीं पचा पाए, ऐसे में कुछ संप्रदायों में पाँच, आठ या दस साल के बच्चों को दीक्षा देकर अध्यात्म के मार्ग पर धकेल दिया जाता है। खुद माँ-बाप राज़ी खुशी बच्चों को दीक्षा दिला कर छोटी उम्र में ही एक ऐसा जीवन जीने के लिए मजबूर करते है, जिस राह पर धर्मं और मोक्ष के नाम पर कष्ट और दर्द ही देखे जाते है।
इंसान के मन में वैराग्य भावनात्मक चोट से या स्वयं की विचार शक्ति से भौतिक जगत से मोह टूटता है तब उत्पन्न होता है। वह भी एक उम्र के बाद व्यक्ति स्वयं के जीवन का कारण तलाशने लगता है या ईश्वर के प्रति अनन्य मोह जगता है तब वह अध्यात्म के मार्ग पर निकल जाता है। सन्यास पूर्णतया भावनात्मक ज्ञानमार्ग है, जो विचार शक्ति, और मनन द्वारा अंतिम सत्य तक पहुँचने का रास्ता है। इस राह पर चलकर आठ दस साल का बच्चा क्या करेगा?
जैन धर्म हो, स्वामी नारायण संप्रदाय हो या कोई ओर समूह बहुत जगहों पर देखा जाता है साधु और मुनि अपने प्रवचनों द्वारा बच्चों का और माँ-बाप का ब्रेन वाॅश करते है संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न करवाने वाले भड़काऊ भाषणों से। अगर कोई बीस या पच्चीस साल का युवा दीक्षा लेने की बात कहता है, तो शायद इस बात को पचा पाना इतना मुश्किल नहीं होता हम मान लें की चलो उनको अपनी ज़िंदगी है खुद समझदार है तो अपनी राह चुन सकता है। लेकिन जब आठ या दस साल का बच्चा दीक्षा लेता है, तो ये समझ से बिल्कुल परे है। क्या जानता है इतना छोटा बच्चा धर्मं और मोक्ष के बारे में? माँ-बाप की छत्रछाया में ज़िंदगी की चुनौतियों से अन्जान बालक का अध्यात्म से क्या लेना-देना? घर में अपने कंफ़र्ट ज़ोन में खुद को महफ़ूज़ महसूस करने वाले बालक कैसे सन्यासी जीवन के कष्ट सहेन कर पाएंगे यह कोई क्यूँ नहीं सोचता। ऐसे माँ-बाप को पहले खुद ऐसा जीवन सिर्फ़ एक साल जी कर देखना चाहिए तब पता चलेग।
अगर बच्चा खुद भी ज़िद्द करता है दीक्षार्थी बनने की उस परिस्थिति में भी अभिभावकों का फ़र्ज़ बनता है की बच्चे को समझाए और कहें कि एक उम्र के बाद जब वह खुद अपना निर्णय लेने में सक्षम हो जाएगा तभी वह उस मार्ग का चयन कर सकता है। वरना बच्चों के साथ ये सरासर अन्याय ही है, खेलने-कूदने की उम्र में क्यूँ साधु बना देना है। न ज़िंदगी को समझते है, न अध्यात्म का ज्ञान होता है इस उम्र में क्यूँ खुशियों से विलुप्त कर देते हो। बड़ा होने पर बच्चों को खुद तय करने दो की वह क्या चाहते है, कौनसी राह चुनना चाहता है। अगर संभाले नहीं जाते तो पैदा क्यूँ करते हो। बड़ी धूमधाम से दीक्षा समारोह मना कर फूल से बच्चों को ज़िंदगी से विमुख करके यातना सहने की राह पर छोड़ देना कहाँ का न्याय है।
बच्चों को ज़रा सी चोट लगने पर माँ-बाप सौ मौत मरते है, कैसे कोई इतने से बालक को बिना उसकी मर्ज़ी जानें खुद से दूर कर लेते है। क्यूँ इतना महान बनना है माँ-बाप को। कलेजा काँप उठता है सन्यासी जीवन की कल्पना करते ही। खासकर दीक्षार्थी के साथ केश लोचन का विधान अति कष्टदायक होता है, एक-एक बाल को खिंच निकालना सच में हिंसा का ही एक भाग है। साथ में मुमुक्षों के लिए कितने कड़े नियम होते है खुल्ले पैर चलना, खाना माँग कर खाना है, बदले में प्रवचन या उपदेश देना है। खाना सूर्य अस्त होने से पहले खा लेना है। तामसिक भोजन का पूर्णतया त्याग
जो कपड़े पहन कर निकलो, उसे अंतिम मान, फट कर गिर जाने के बाद दिग को ही अपना अम्बर समझ लेना होता है। कभी किसी वाहन का उपयोग नही करना। सुना है जीवदया के नियम को अपनाते कुछ मुनि जन ताउम्र नहाते भी नहीं।
सन्यास का मार्ग बहुत कठिन होता है, साधु को बहुत सारे नियमों का पालन करना होता है परिवार का त्याग, सुख साह्यबी का त्याग, ज़मीन पर सोना, मांग कर खाना होता है। सन्यासी बनने से पहले अपने परिजनों सहित खुद का पिंडदान करना पड़ता है तभी सन्यासी जीवन में प्रवेश कर सकते है। और सबसे अहम बात ब्रह्मचर्य का पालन जो अमूमन किसी भी इंसान के लिए आसान नहीं। यही बच्चें जवान होते ही शारीरिक जरूरत के चलते कई बार बचपन में साधु बन गए होते है वह कुछ सालों बाद संसार में वापस लौटते है, यही बात पुरवार करती है की दीक्षा दिलाई नहीं जानी चाहिए एक उम्र के बाद इंसान जब समझदार हो, अध्यात्म को गहराई से जानें, समझे उसके बाद द्रढ़ संकल्प के साथ खुद की मर्ज़ी से सन्यास लें वही उचित है। माँ-बाप का कोई हक नहीं बनता कच्ची उम्र में बच्चों से उनका बचपन छीन कर दीक्षा दिलवाने का।
— भावना ठाकर ‘भावु’

*भावना ठाकर

बेंगलोर