लघुकथा

नादान

जब रामजी भाई के घर बेटी पैदा हुई तो उन्होंने बहुत खुशी जता कर अपने रिश्तेदारों और  अपने सहकर्मियों में जलेबी के डिब्बे बनाकर खुशी से बांटे थे।छोटी सी प्यारी सी बेटी बहुत सुंदर थी  चालीस दिन पूरे होते ही उनके घर पर जैसे सगन डालने वालों का ताता लगता रहा पूरा महीना,कोई कवर में रुपए डालकर सगन दे गया था तो कोई सुंदर सी फ्रॉक तो कोई खिलौना, ऐसी चीजों से घर भर सा गया था।
     लेकिन जब वह 4 महीने की होने को थी तो एकदिन उसे बहुत तेज बुखार आया और इतना तेज था कि उसके दिमाग पर चढ़ गया।वैसे डॉक्टर ने उसे बचा तो लिया था लेकिन उसके दिमाग पर असर हो गया जिससे उसकी जिंदगी ही बदल गई।
    उसकी मानसिक  वृद्धि होना कम हो गया था वह उसी उम्र की दहलीज पर ठहर सी गई थी।वैसे ही वह अपनी उम्र के दोस्तों से पिछड़ती गई और दूसरे बच्चे आगे बढ़ते गए और वह वहीं ठहरी अपने से छोटी उम्र के बच्चों के साथ ही खेलती रही।सब ही बच्चें उसकी नादानीयों को समझते थे ,उसका बहुत खयाल रखते थे।उसकी हर भावना का आदर करते थे कभी जब रक्षा नाराज भी हो जाती तो सब मिलकर उसे मना लिया करते थे।लेकिन धीरे धीरे वे सभी, एक के बाद एक ऐसे तीन ग्रुप के बच्चें उससे आगे चले गए कोई हाई स्कूल तो कोई मिडिल स्कूल में दाखिला ले चले गएअब उनके पास समय नहीं रहता था रक्षा के साथ खेलने के लिए। अब उसके लिए  कोई मित्र रहें ही नहीं तो वह बड़े बूढ़ों के साथ बैठने लगी।
   कहतें हैं जवानी में तो गधी भी परी लगती हैं तो ये तो पहले से ही सुंदर थी तो जवानी में कदम रखते रखते तो परी सी सुंदर लगने लगी। ऐसे ही दिन कटते गएं और रक्षा ओर भी बहुत ही खबसूरत दिखने लगी।सब की नजरें उस के शरीर को टटोलती रहती थी किंतु इन सभी से अनजान वह अपने भोले से पागलपन में मस्त ही रहा करती थी।
 ऐसे ही दिन बीतते गए वह जैसे ही मौका मिलता अपने हिसाब से मन बहलाने सब से मिलने लगी थी।एक दिन उसने एकाएक घर से बाहर आना बिलकुल बंद कर दिया  गया,अगर वह बाहर आना भी चाहती तो उसे डांट कर अंदर रहने की सूचना देती उसकी मां की आवाज बाहर तक सुनाईं देती थी।फिर तो उसे रस्सी से बांध कर भी रखने लगे थे ऐसा कभी उनका दरवाजा खुल्ला होता तो साफ दिखाई देता था।
  अब सभी को कुछ वहम होने लगा था कि कुछ न कुछ तो वहां हो रहा था लेकिन क्या ये समझ नहीं आ रहा था।लेकिन धर में फल फ्रूट खूब आने लगे थे।अब रक्षा के साथ साथ उसकी मां भी बाहर दिखनी बंद हो गई थी।जैसे उन्होंने सोसाइटी का बहिष्कार कर दिया हो ऐसा लग रहा था, अलूफ होके रह ने का कोई कारण समझ में नहीं आया था।एक रात को पूरा परिवार ही कहीं चला गया,पूरी सोसाइटी को अचंभित छोड़ कर।
 दो दिन सब एक दूसरें से उनके जाने के बारे में पूछते रहे और कहां गाएं होंगे उसका अनुमान लगाते रहे।कुछ दिन बाद रामजी भाई अकेले लौट आएं तो किसी ने पूछ ही लिया कि सब कहां गए थे तो वे हंस कर टाल गए।जैसे हमेशा से होता आया हैं वैसे जनता को भूलने में समय नहीं लगता वैसे सब उन्हें भूल गए।
 कुछ तीन चार महीनों बाद रक्षा समेत उसकी मां और बहनभाई  भी लौट आएं लेकिन उसमे एक सभ्य का इजाफा हो गया था,एक छोटा सा बच्चा,प्यारा सा बेटा।किसका बेटा? तो जवाब मिला रामजी भाई का बेटा।उनकी पत्नी जो 55 पर कर चुकी थी उन्होंने बेटे को जन्म दिया था इसलिए वे लोग मामा के घर गएं थे। इतना स्वस्थ  और सुंदर बच्चा इस उम्र में उनका कैसे हो सकता था ये प्रश्न सभी की आंखों से बार बार झांक रहा था या फिर ये वही वयस्क जनों की करतूत थी जिनके साथ रक्षा अपना समय गुजारा करती थी।
— जयश्री बिरमी

जयश्री बिर्मी

अहमदाबाद से, निवृत्त उच्च माध्यमिक शिक्षिका। कुछ महीनों से लेखन कार्य शुरू किया हैं।फूड एंड न्यूट्रीशन के बारे में लिखने में ज्यादा महारत है।