प्राण के बाण 13वीं किस्त
जो न बता पाए हैं अन्तर पूड़ी और पराठे में।
उनके ही उत्तर आए हैं कुश्ती और कराटे में।।1।।
जिनको अन्तर पता नहीं है हफ्ते और महीने में।
वे अन्तर बतलाने बैठे पानी और पसीने में।।2।।
जिनकी बुद्धि टिकी रहती है छोले और भटूरों में।
उनकी ही गणना होती है कलश और कंगूरों में।।3।।
इनके मज़े देख कइयों ने जीवन ढंग बदल डाले।
गिरगिट की क्या कहें गिलहरी तक ने रंग बदल डाले।।4।।
सत्य अकड़ता है पर झूठा माल गटकता रहता है।
पौधे पर तन जाती भिण्डी भटा लटकता रहता है।।5।।
कभी अरस्तू ने लिक्खा था सामाजिक – पशु मानव को।
आज सार्थक हुआ शब्द यह नर की देख शरारत को।।6।।
प्राण आज हक्के बक्के हैं कैसे दिन बीते हैं।
विज्ञापन से समझ बढ़ रही ऐसे हम जीते हैं।
जब से डिजिटल हुआ इण्डिया ऐसी बनक बनी है ,
बिसलेरी बोतल का पानी ऊँट तलक पीते हैं।।7।।
— गिरेन्द्रसिंह भदौरिया “प्राण”