गज़ल
छोटा सा इक आशियां चाहते हैं
ज़रूरत से ज्यादा कहां चाहते हैं
खिज़ाओं का मौसम रहे दूर जिससे
उम्मीदों का वो गुलसितां चाहते हैं
हक का ही लेंगे हो ज्यादा या थोड़ा
न सर पे कोई एहसां चाहते हैं
वफाओं का अपनी अहद मुझे देकर
वो लेना मेरा इम्तिहां चाहते हैं
ज़मीं जीत कर भी नहीं मुतमईन वो
लिखने को नाम आसमां चाहते हैं
बड़े नासमझ हैं यहां कौड़ी देकर
हम पूरा खज़ाना वहां चाहते हैं
— भरत मल्होत्रा