सामाजिक

बहाना

“पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए.
लिखने वालों को लिखने का बहाना चाहिए.
रिश्तों को निभाए रखने के लिए किसी
बहाने की आवश्यकता नहीं,
रूठने वालों को रूठने का बहाना चाहिए.”
जी हां, रूठने का न कोई विशेष मौसम होता है, न कोई विशेष स्थल या कारण! रूठने वालों का क्या भरोसा! न जाने कब, क्यों और कैसे रूठ जाएं.
श्वेता का मन भले ही नाम के अनुरूप रूप श्वेतिल हो, पर सामने वाले के मन की बात को कैसे समझा जाए!
सखी नीलिमा की बेटी की शादी थी. तब न तो मोबाइल थे और न कोरियर की सुविधा. बाहर वालों को तो बहुत पहले ही पत्र द्वारा निमंत्रित किया जाता था. विशेष नाजुक रिश्तों का मान रखने के लिए भी व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होना पड़ता था. खुद जाकर या किसी को भेजकर ही निमंत्रण पत्र दिया जाता था. शादी बेटी की हो या बेटे की व्यस्तता तो होती ही है.
“श्वेता बेटी की शादी है, निमंत्रण देने आएं या फोन पर ही स्वीकार कर लोगी?” नीलिमा ने फोन करने श्वेता से पूछा.
“इतनी दूर कहां आओगी नीलिमा, बस दिन, समय और पता बता दो, हम पहुंच जाएंगे और हां, हमारे लायक कोई काम हो तो अवश्य बताना.”
“बस यह निमंत्रण देने का काम ही रह गया है.”
श्वेता बेटी की शादी कर चुकी थी, सो सहज ही उसने नीलिमा की मुश्किलात समझ ली और खुशी-खुशी शादी में शामिल हुई थी, मित्रता को टूटने का कोई बहाना न मिला.
बहाने से उसे याद आया कि बेटी की शादी में कोई मदद न लेने के लिए उसकी देवरानी भी रूठ गई थी और बहिन भी! दोनों नौकरी वाली और व्यस्त थीं, फिर भी उनके मन में शायद अपनी अहमियत कम होने का एहसास उठा होगा, सो रूठने का बहाना मिल गया.
रूठने का बहाना बहिन ने बेटे की शादी में भी ढूंढ लिया था. बेटे की शादी के समय उसके पति को बैठने की जगह फोड़ा हो गया था, इसलिए कहीं आना-जाना मुश्किल हो गया था. बेटी की ससुराल की शादी शहर में ही हुई थी, इसलिए वहां तो हर हाल में जाना ही था, किसी तरह उनको व्यक्तिगत रूप से स्वयं निमंत्रण देकर आए.
शादी के समय बहुत-से मित्र-रिश्तेदार मदद के लिए आ जाते हैं.
“आपका आना-जाना मुश्किल हो रहा है भाई साहब, एक साइड के कॉर्ड मुझे दे दीजिए.” भाई ने कहा.
देवर-देवरानी कॉर्ड देने गए. बहिन का घर भी उस साइड था, उसे भी निमंत्रित कर आए.
“यह भी कोई निमंत्रित करने का तरीका है बेटे की शादी में!” लीजिए मिल गया रूठने का बहाना. आम लोगों की तरह ऐन टाइम पर आए, शगुन देकर चले गए.” रूठने का इससे बड़ा संकेत भला और क्या हो सकता था! पड़ गई रिश्ते में गांठ!
बहाना तो बहाना है साहब! ढूंढना था, ढूंढ लिया गया.
श्वेता ने नया घर खरीदा था. अभी उसमें रहने का तो इरादा नहीं था, पर घर का मुहूर्त करना था. पूजा का सामान रखकर पूजा की तैयारी कर ली गई थी. मायके से भाई-भाभी आए हुए थे, बाकी सब शहर के ही थे. मुहूर्त के बाद गाना-बजाना खाना-पीना हो गया. एक रात तो उन्हें उस घर में रुकना ही था. जमीन पर गद्दे लगाकर श्वेता का परिवार भी सोया और भाई-भाभी भी. सबकी सहूलियत का ध्यान रखते हुए स्थानीय रिश्तेदारों को रहने के लिए नहीं कहा गया था. बस रूठने का बहाना मिल गया और रूठने वाले रूठ गए! अब बहानों का क्या किया जाए!
रिश्तेदारी में एक-दूसरे से लेन-देन तो चलता ही रहता है! जरूरत पड़ने पर एक साहब ने 10-12 हजार रुपये उधार लिए. गाहे-बगाहे कहते रहते थे, जब जरूरत हो बता देना. गोया उधार देने वाला उनका कर्जदार था. एक दिन वे पैसे लेकर श्वेता के घर देने आए. एक ने दिए दूजे ने ले लिए. बस जी रूठने का यह बहाना कोई कम था कि एक बार भी ना-नुकुर नहीं किया!
भगवान बचाए इन रूठने वालों से जो रूठने का बहाना ढूंढने और रूठने के कॉलेज के प्रोफेसर रह चुके हों!

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244