कहानी
जिंदगी के रंग (कहानी ) मैं अपने बरामदे में बैठा पहाड़ों की खूबसूरती को देख रहा था । इस बार कई सालों के बाद मैं घर आया था । नीचे सड़क में गाड़ियां आ जा रही थी । सामने पहाड़ों पर जहां तक नजर जा रही थी बिछी हुई सड़कें पहाड़ की छाती पर उभरी लकीरों सी लग रही थीं । अब इन पहाड़ों पर चढ़ाई उतराई से लोगों को राहत मिल गई थी । गांव में सड़कें पहुंच चुकी थीं जहां नहीं भी पहुंची थी वहां भी फासला कम हो गया था । यूं तो देखने में सामने नजर आता था पहाड़ परंतु वहां पहुंचना इतना कठिन था के पूरा पूरा दिन लग जाता था और रास्ते भी इतने खराब होते थे कि थोड़ा सा पैर फिसला तो समझो गई जान । परंतु अब ऐसा नहीं था ।सड़कों के जाल को देख कर मुझे तसल्ली हो रही थी । आजादी के सत्तर सालों बाद पहाड़ की तस्वीर भी बदली थी ,और तकदीर भी । लोगों के जीवन स्तर में बहुत बदलाव आया था ।नई पीढ़ी के लोगों ने तो वैसा जीवन देखा ही नहीं था जैसा मैंने या मेरी पीढ़ी के लोगों ने जिया था । यदि इस पीढ़ी के लोगों के साथ उस जीवन की चर्चा की भी जाए तो उन्हें विश्वास दिलाना मुश्किल ही नहीं कठिन भी है की हमारा जीवन कैसा रहा है। मैं भी तो अब अपने गांव अपनी गाड़ी से आया था । नीचे सड़क में मैंने अपनी फोर्ड गाड़ी खड़ी कर रखी थी ।यह सोचता हुआ मैं अतीत और वर्तमान के झूले में बैठा जैसे झूलने लगा । अतीत की हिलोर आई और मैं चालीस बरस पीछे जा पहुंचा । जब यहां गांव में ना तो पक्के मकान थे और ना सड़कें ।यहां तक की ठीक से चलने के लिए रास्ते भी नहीं थे बड़ा ही कठिन जीवन था । लोग अनपढ़ता और अंधविश्वासों की चपेट में थे । अगर कोई बीमार हो जाता तो लोग डॉक्टरों की बजाए ओझों के पास जाते । यूं भी आज की तरह न तो अस्पताल थे और न ज्यादा डॉक्टर ।पास के कस्बे में एक दो बिना डिग्री के डॉक्टर या वैद्य कह लीजिए हुआ करते थे । लोग उन्हीं पर निर्भर थे । वहीं से दवाई लेते , ठीक हुए तो ठीक वरना राम नाम सत है ऐसी स्थिति थी । मुझे याद आया उस दिन शाम के समय अम्मा गौशाला से आकर बोल रही थी– आज भैंस ने दूध नहीं दिया । बीमार हो गई है … घास भी नहीं खा रही है । यही तो सारी पूंजी थी । इसके दूध के बूते ही सारा परिवार चलता था । नमक तेल और हमारी पढ़ाई का खर्चा तीन किलो दूध लगाया था गांव के एक आदमी को । गांव से यह व्यक्ति सारा दूध इकट्ठा करके कस्बे में ले जाता था । छ: रुपए किलो के हिसाब से दिन के अठारह रुपए बन जाते थे ।उसी से पूरा घर चलता था यह भैंस नहीं एक तरह से पूरे परिवार का कमाऊ पूत था । भैंस के बीमार होते ही पूरा परिवार यानी अम्मा बापू और हम दो भाई सकते में थे। अब क्या किया जाए। बापू कह रहे थे अभी तक इस भैंस को खरीदने का पिछला कर्जा भी नहीं चुका पाए हैं । अगर इसे कुछ हो गया तो हम तो कहीं के नहीं रहेंगे ।बापू रुआंसे से होकर अम्मा से कह रहे थे ।हम दोनों भाई पास बैठे सुन रहे थे ।हमें उनकी यह परेशानी ज्यादा समझ तो नहीं आती थी ,परंतु हम इतने छोटे भी नहीं थे कि समझ न सके उनके इस दुख को, उनकी इस परेशानी को, उनके इन आंसुओं को। आधी रात को अम्मा बापू ने तो हमें खाना खिला कर सुला दिया परंतु उन दोनों ने पूरी रात गौशाला में काटी । अम्मा बापू भैंस की सेवा में लगे रहे पूरी रात । सुबह जब हम उठे तो अम्मा कह रही थी कि भैंस ने घास का एक तिनका भी मुंह में नहीं डाला । आस-पड़ोस वाले भी हमारे इस दुख में शामिल थे । कोई कहता इसने घास में जहरीला कीड़ा खा लिया है । तो कोई कहता शायद इसने जहरीली खास खा ली है ।इसलिए सभी उस जहर को उतारने के अपने अपने तरीके से अपने अपने टोटके बता रहे थे । कोई कहता इसे अजवाइन खिलाओ कोई कहता फलां पेड़ की पत्तियां पीसकर खिलाओ । तो कोई कहता है इसके पेट को मलो , शायद उसके पेट में दर्द है ।अम्मा बापू सब कुछ करने में लगे थे जो जैसा बता रहे थे वैसा कर रहे थे । परंतु भैंस ठीक नहीं हो रही थी । धीरे-धीरे दिन चढ़ आया था ,परंतु भैंस की तबीयत और ज्यादा खराब हो गई थी । वह लेट गई थी ।अब अम्मा बापू ने उसकी रस्सियां खोल दी थीं । शायद वह धीरे धीरे मौत के मुंह में जा रही थी । दिन के कोई बारह बजे होंगे भैंस मर गई । अम्मा का रो रो कर बुरा हाल था बापू उसे हौसला दे रहे थे। अड़ोसी पड़ोसी भी हौसला दे रहे थे ,कह रहे थे …कोई बात नहीं ,पशु ही तो है और खरीद लेना , कोई आदमी थोड़ी है । पर वह क्या जाने कि यह उनकी भैंस नहीं कमाऊ पूत था, जिसके बूते घर चलता था । आज घर में खाना नहीं बना घर में मातम पसरा था । थोड़ी देर में गांव के मर्द इकट्ठे हुए और भैंस को गौशाला से निकाल कर खेतों के रास्ते गिराते हुए हशनाले के किनारे तक ले गए और वहां गहरा गड्ढा बनाकर उसमें उसे दबा दिया । उधर घर में अम्मा का रो-रोकर बुरा हाल था आज ऐसे लग रहा था जैसे घर का कोई प्राणी सदा के लिए बिछड़ गया हो । खैर दुनिया स्वार्थी है । हमारे परिवार का भी स्वार्थ रहा होगा । भैंस परिवार के सदस्य की तरह पूरे परिवार को पाल रही थी । इसलिए परिवार का भैंस के मोह में बंधा होना स्वभाविक था । कहते हैं न सभी को अपना सुख प्यारा होता है । हमारे परिवार को भी अपना सुख प्यारा था । उस जमाने में गांवों में अक्सर पशुपालन ही मुख्य व्यवसाय हुआ करता था । पशुओं के बूते ही लोगों की रोजी-रोटी चलती थी। पहाड़ की जमीने तो मौसम पर निर्भर रहती आई हैं । किसानी हो या बागवानी मौसम साथ दे तो ठीक वरना मेहनत भी पल्ले नहीं पड़ती । किसानी बागवानी में तो आज भी संभवतः वही हालात हैं । कभी आंधियों में बगीचों के बगीचे खत्म हो जाते हैं तो कभी सूखे या भारी बरसात से खड़ी फसलें तबाह हो जाती हैं । किसान बागवान आज भी बेचारा है लाचार है। यह बेचारगी और लाचारगी आज भी इनकी जैसे नियति हो , और इस नियति को स्वीकारना आज भी इनकी जैसे विवशता है । दो-चार दिन यूं ही मातम में बीत गए तो पिताजी ने एक बार फिर हिम्मत की । गांव के जिस व्यक्ति से पहले कर्ज लिया था फिर उसके पास पहुंच गए । अपनी सारी राम कहानी सुनाई । जमाना अच्छा था अभी पिछली रकम भी वापस नहीं की थी और फिर पैसे चाहिए थे । कहते हैं न मूल से सूद ज्यादा प्यारा होता है । इसी सूद के लालच में या फिर पिताजी की लाचारगी को देखकर गांव के उस सेठ ने एक बार फिर हामी भर दी,और पिताजी को भैंस लेने के लिए पांच हजार रुपए ब्याज पर फिर कर्ज दे दिए । पिछली राशि डालकर पिताजी के सिर पर कर्ज का बोझ भारी हो गया था । कस्बे में पंजाब से व्यापारी भैंसे बेचने के लिए लाते थे । पिताजी उनसे पांच हजार रुपयों में फिर भैंस खरीद लाए । कस्बे से गांव के लिए रास्ता बहुत खराब था । जंगल के रास्ते से भैंस को लाने के लिए गांव के तीन चार लोग पिताजी के साथ गए थे । घर में एक बार फिर अम्मा खुश थी कि चलो रोजी रोटी फिर चल पड़ेगी । सुबह चले थे कस्बे से परंतु रास्ता खराब होने के कारण शाम के समय तक गांव तक पहुंचने ही वाले थे कि अचानक भैंस का पांव फिसला । फिर उसे संभालना मुश्किल था । वह देखते ही देखते ढांक से नीचे गिर गई और मर गई । भैंस के गिरते ही पिताजी भी फूट-फूट कर रोने लगे । जब घर पता चला तो अम्मा और हम सारा परिवार फूट-फूट कर रोने लगे । अम्मा को तो ऐसा लग रहा है जैसे पूरी दुनिया ही लुट गई है । उसकी आंखों से आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे । भैंस को लेने गए पिताजी और बाकी लोग खाली हाथ घर लौट आए । एक बार फिर घर में मातम पसर गया । अब पिताजी के पास इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह दोबारा कर्ज लेकर और भैंस खरीद लें । अब बड़ी मुश्किल से घर चलने लगा । कुछ दिनों बाद सेठ को लगा की पिताजी उसकी रकम वापस नहीं कर पाएंगे तो एक दिन वह घर आए और बोले –सुनो हरदयाल तुम मेरी दी रकम वापस नहीं कर पाओगे । क्योंकि तुम्हारे पास अब आमदन का कोई साधन नहीं है , और मुझे लगता है कि अब आपको यह रास्ते वाला खेत मुझे दे देना चाहिए । ताकि तुम्हारा कर्जा भी उतर जाए और मुझे भी अपनी रकम की चिंता न रहे। क्योंकि पिछले तीन महीनों से आप मूल तो कहां सूद भी नहीं दे रहे हो । इसलिए तुम्हारी इसी में भलाई है कि तुम इस खेत को मुझे दे दो । अगर आप प्यार से नहीं दोगे तो भी मैं इसको ले लूंगा ।और हां एक शर्त पर आपको सुविधा देता हूं कि जब आप मेरी रकम ब्याज सहित लौटा दोगे तो मैं यह खेत आपको वापस लौटा दूंगा । मरता क्या न करता पिताजी के पास कोई और विकल्प तो था भी नहीं । उन्होंने खेत देने के लिए हामी भर दी ।और सेठ जी को कहा कि -आपको जब मैं सारी रकम लौटा दूंगा उस दिन आप मेरा खेत मुझे लौटा देना । बस मेरी इतनी सी ही आपसे विनती है। लोग इमानदार हुआ करते थे उस जमाने में । पिताजी और सेठ जी के बीच का अनुबंध लिखित नहीं था सिर्फ जुबान का अनुबंध था और उसका गवाह भी कोई और नहीं था सिर्फ हमारी मां और हम दो भाई । फसल के खत्म होते ही अगली फसल सेठ ने बीज दी हमारे इस खेत में । किसान का खेत कोई और ले ले इससे ज्यादा पीड़ादायक स्थिति कोई और नहीं होती उसके लिए । पिताजी के भीतर भी न जाने कितनी पीड़ा थी इस खेत के सेठ को दे देने के बाद । परंतु कोई चारा भी तो नहीं था । जमीन तो मां होती है किसान के लिए । उसे किसी और को दे देना उसे कभी गवारा नहीं होता। समाज में भी पिताजी को शर्म महसूस होती कि कर्ज न चुका पाने के कारण उसे अपना खेत गिरवी रखना पड़ा । लोग तरह-तरह की बातें करते । कई बार ऐसी बातें हमारे कानों तक भी पहुंचती ।सुनकर हमें भी ऐसा लगता जैसे किसी ने सीसा पिघलाकर हमारे कानों के रास्ते दिल तक उड़ेल दिया हो ,मन पीड़ा से भर जाता । जब सेठ के बैल हमारे खेत को जोत रहे थे तो पिताजी आंगन में बैठे आंसुओं से भर आए थे । मैंने उनके चेहरे पर पहली बार इतनी पीड़ा देखी थी । उसी समय मैंने प्रण किया की मैं बेशक पढ़ाई छोड़ दूंगा परंतु अपने खेत वापिस लेकर रहूंगा । उसके लिए चाहे मुझे कितना भी संघर्ष करना पड़े कितनी ही मेहनत करनी पड़े ।फिर मैंने एक दिन स्कूल छोड़ दिया । कस्बे के एक ढाबे पर मुझे बर्तन धोने का काम मिल गया । पिताजी नहीं चाहते थे कि मैं स्कूल छोड़ूं । परंतु मैंने पिताजी को कह दिया था कि मैं अब आगे नहीं पढ़ूंगा । उस समय मैं सातवीं में पढ़ता था और मेरी उम्र थी लगभग तेरह साल । फिर एक दिन मैं ढाबे से भागकर अमृतसर चला गया । मैंने सुना था कि वहां गुरुद्वारा है । वहां मुफ्त में लंगर मिल जाता है । मैंने सोचा जितने दिन मुझे काम नहीं मिलेगा मैं वही खाना खा लूंगा । कस्बे से जब मैं निकला तो मुझे नहीं पता था कि शहर इतने बड़े होते हैं । वहां पहुंचकर मुझे घबराहट होने लगी । इतने ज्यादा लोग इतनी बड़ी-बड़ी इमारतें सड़कें पुल चहल पहल, ये सब मैं पहली बार देख रहा था। यहां आकर में सबसे पहले पूछते पूछते गुरुद्वारे में पहुंच गया । वहां लंगर भी छका और रात भी सराय में बिताई । दूसरे दिन मैं काम की तलाश में निकला तो एक आढती ने मुझे काम पर रख लिया । तीन साल तक मजदूरी से जो पैसा कमाया वह सेठ का कर्जा उतारने के लिए पर्याप्त था । अब मेरी उम्र भी सत्रह वर्ष की हो गई थी । मैं घर आया और पैसे बापू के हाथ पर रखकर कहा -बापू आप सेठ का कर्जा उतार दो । बापू ने सेठ को पैसे दे दिए और सेठ ने हमारे खेत से कब्जा छोड़ दिया। मैं फिर शहर में रम गया । मेरी मेहनत और उसकी रहमत रंग लाई । आढती के कोई बच्चा नहीं था । उन्होंने मुझे अपने बच्चे की तरह रखा । और मुझे अलग से कारोबार खोल दिया । मेरा कारोबार चल निकला , अब मैं अपना व अपने आढ़ती का कारोबार स्वयं चलाता । अब मेरे अम्मा बापू को भी कोई तंगी नहीं थी । वे अभावों के दिन गुजर गए थे । अब वही गांव के लोग मेरे पिताजी को दुआ सलाम करने लगे थे ।अब मेरे पास कोठी कार बंगला सब कुछ था । गांव में भी और शहर में भी। अब मेरे पास नहीं थे तो अम्मा बापू नहीं थे । बाकी सब कुछ बदल गया था मेरा जीवन भी और मेरे गांव का जीवन भी। अब पैदल रास्ते नहीं थे न पगडंडियां थी , सड़के थीं और गाड़ियां । मैं सोचते सोचते अतीत के द्वंद से बाहर निकला तो सिंदूरी धूप पहाड़ों की चोटियों से विदा लेने लगी थी । मैं कुर्सी से उठा और बरामदे से अंदर कमरे में आ गया । जिंदगी के कई रंग मेरे मानस पटल पर आ – जा रहे थे । अब ख्यालों का सारा जाला खुल चुका था ।
— अशोक दर्द