ग़ज़ल
परदेसों में घूमें खूब नज़ारों में।
रहना हम ने अपने शहर चौबारे में।
आज भी मुझ को मेरा बचपन दिखता है,
शाम ढले को चढ़ते प्रथम सितारे में।
दादी मां फिर चित्त में क्यों आ जाती है,
चूल्हे भीतर उठते सुर्ख़ शरारे में।
हाथ हिला कर वह तो वापस जाता है,
कितने दे जाता था ज़ख़्म इशारे में।
मज़बूरी भी चेहरे पर आ जाती है,
सच्चा लारा होता झूठे लारे में।
इस से बढ़ कर जन्नत और कहां होगी,
अपनापन है अपने राजदुलारे में।
सारा कुटुम्ब घर में मिल कर रहता था,
संतोष बड़ा होता था कच्चे ढारे में।
अपने गांव में साझा वाला धर्म रहा,
मन्दिर, मस्जिद, गिरजे, गुरुद्वारे में।
हर इक रिश्ते में ही अपनापन होता,
चार पशु होते थे सिर्फ़ गुज़ारे में।
केवल सत्ता बदली, बाक़ी वैसे है,
जो बीता संताली के बंटवारे में।
दूजे को निर्धन से राजा कर देना,
बालम,जित होती है जित के हारे में।
— बलविंदर बालम