सामाजिक

विचारहीनता के दौर से गुजर रही है आज मानव सभ्यता

आज के इस मुनाफाखोरी दौर में बहुत कम ही लोग हैं जिनका कोई आदर्श है या किसी खास चिन्तन के प्रभाव में हैं अधिकांश लोग जब जैसा तब तैसा स्थिति में ढुलमुल हैं। क्या पढ़ा क्या अनपढ़ सबका एक ही हाल है।तर्क से किसी चीज को समझना नहीं चाहते, कुतर्क के लिए तो कहिये ही नहीं, गलत को भी सही सिद्ध करने की कला में महारथ रखते हैं। आज जो व्यक्ति अंधविश्वास के विरूद्ध बोलता और लिखता है वही मंदिर और मस्जिद में जाकर घुटना टेककर अपनी अंधविश्वासी अवैज्ञानिक नजरिया का परिचय देता है। अन्य को तो छोड़िए जो खुद को विज्ञान का ज्ञाता कहता है उसका भी वही हाल है। ऐसा लग रहा है जैसे मानो पूरी मानव सभ्यता को कूपमंडुपता की स्थिति में लाकर गर्त में ले जाने की तैयारी चल रही है। आज के लेखकों और वक्ताओं को केवल बोलने का अवसर मिलना चाहिये, वे किसी भी विषय पर कुछ भी बोल सकते हैं, उनका अपना कोई पक्ष नहीं होता, लोगों की भावनाओं को भाँपते हुए ये बोलते और लिखते हैं।इन्हें वाहवाही और ताली से मतलब है, इनके बोले और लिखे बातों का दूरगामी परिणाम क्या होगा इससे इन्हें कोई लेना देना नहीं। और हो भी तो कैसे ऐसे लोगों की खुद की समझ भी खिचड़ी-परोस ही होता है। ऐसे लोग वैज्ञानिक दर्शन के समझ के अभाव में खुद अंधविश्वासी बन जाते हैं,चाहे वे विज्ञान का विद्यार्थी ही क्यों न रहे हों।

आज ऐसा लग रहा है जैसे मानो वैचारिक शून्यता की स्थिति पैदा हो गई है। जो व्यक्ति आज डारविन का जैव विकास पर बोलकर उसे समझा रहा है या उसपर लिख रहा है,वही आज आध्यात्मिक अनुष्ठानों में भाग लेकर आध्यात्म पर भाषण देकर उसे सही सिद्ध कर रहा है। ऐसी स्थिति में आम जन का दिमाग विचलित होना तो स्वाभाविक ही है।आज देखा जाय तो जहाँ से औपचारिक शिक्षा की सुरुआत होती है अर्थात विद्यालयों से वहीं अवैज्ञानिक माहौल बनाया जा रहा है। विद्यालय की प्रारम्भ ईश्वर की प्रार्थना से सुरु हो रही है, विज्ञान शिक्षक भी हाँथ जोड़कर प्रभु-भक्ति में उस समय लीन दिखते हैं।पाठ्यक्रम के साथ राम-रहीम पर आधारित भक्ति के पाठ जोड़कर उसे पढ़वाया जा रहा है।अब बताईये विद्यालय जो वैज्ञानिक नजरिया उत्पन्न करने का केन्द्र होता है वहीं अंधविश्वास का माहौल बनाये रखना कितना उचित है? निश्चित ही ऐसे विद्यालयों से निकलने वाले विद्यार्थी अफवाद को छोड़कर अधिकांशतः दिग्भ्रमित रहते हैं और रहेंगे।यही मूल कारण है कि आज व्यक्ति विज्ञान की इतनी विकास के बाबजूद भी आत्मा-परमात्मा जैसी खोखली मान्यताओं में भटक रहा है। आज शिक्षा को जिसतरह से धर्म के साथ जोड़कर बर्बाद किया जा रहा है यह भविष्य के लिए काफी खतरनाक सिद्ध होने वाला है। महान मार्क्सवादी चिन्तक सर्वहारा वर्ग के महान नेता कॉमरेड शिबदास घोस ने कहा था “आध्यात्म और विज्ञान का विचित्र सम्मिश्रण फाँसीवाद को फलने-फूलने का पूरा अवसर देता है।” मैं उनसे सहमत हूँ। आज हमें वह आँखों के सामने देखने को मिल रहा है।

आज की इस पूँजीवादी व्यवस्था ने लोगों को मसीन बना दिया है। आज व्यक्ति भी यंत्रवत काम कर रहा है। समाज से व्यक्ति धीरे-धीरे कटता चला जा रहा है नतीजा यह हो रहा है कि व्यक्ति की सोंच व्यक्तिवादी बनता चला जा रहा है और ऐसी स्थिति में आदर्शहीनता और विचारहीनता स्वाभाविक है।अतः आज वक्त की माँग है कि हम सही वैज्ञानिक विचारधारा को अपनाते हुए अपना आदर्श का चयन करें। यही मात्र रास्ता है जो हरतरह के अंधविश्वासों से मुक्ति दिलाकर हमें सत्य के करीब ला सकता है। जबतक हम वैज्ञानिक विचारधारा और वैज्ञानिक दर्शन से दूर भागते रहेंगे हम किसी न किसी के दास बने रहेंगे।

— अमरेंद्र

अमरेन्द्र कुमार

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