झुलसा साधो नगर –नगर है ,झुलसी गलि –गलि |
साधो हवा बुरी चली ,साधो हवा बुरी चली ||
बम –गर्जन से लगी दरकने ,शहर की कई दीवारें |
आग के मौसम से डर कर मुड़ने लगी बहारें ||
पर्ण –पुष्प सब हो गये नीरस ,नीरस कलि –कलि |
साधो …||
बाघ –तेंदुए मानव हो गये ,मानवता लगे हैं खाने |
चील –कौओं को मोती मिलते,भूखे हंस सियाने ||
मानव के इस लोभ –चक्र में,बकरे की बलि –बलि |
साधो …||
कल के डाकू –चोर –हत्यारे ,सिंहासन तक जा पहुंचे सारे |
भेड़ियों के इस दुर्गम वन में ,भेड़ बेचारी किसे पुकारे ||
भय के मारे सारे झुण्ड में ,मच गई खलबली |
साधो …||
आंतक के काले सर्प जहरीले ,बैठे हैं फन फैलाये |
कैसे कुचालें इन के फन को,जरा समझ न आये ||
सौहार्द के इस सुंदर वन में,द्वेष की आग जली |
साधो …||
लगी सूखने प्रेम की गंगा,शहर –शहर में हो रहा दंगा |
खून की बहती नदियां देखो ,आया कैसा वक्त लफंगा ||
ईमान-धरम और नैतिकता की होली आज जली |
साधो …||
चोरी-ठगी हेरा-फेरी ,कण-कण में आ व्यापी |
किसी की पीड़ा कोई न जाने,पड़ी है आप-धापी ||
अपने मतलब की चाहत में,सब रीत-नीत बदली |
साधो……………………..……………………………….||
नंगापन अब हो गया देखो ,यौवन का पैमाना |
कहाँ से आया सौंदर्य-बोध यह,आया कैसा जमाना ||
ये नंग –धडंग हवा पच्छिम की पूरब की ओर चली |
साधो …………………………………………………………..||
तिकड़मबाजी के आगे अब ,सच की एक न चलती |
हुई उर्वरा पाप की धरती ,बेल झूठ की फलती ||
अंतर्मन में घड़े गरल के ,बोले कौन भली |
साधो ……………………………………………………….||
जीवन-संध्या लगी है रोने ,वृद्धाश्रम में जाकर |
कौन पहुँचाए घर इन्हें वापिस ,बूढ़ा बोझ उठाकर ||
अक्षमओर अपंग संतति ,हो गई निर्बली |
साधो ………………………………………………………..||
आधी दुनिया पेट में कटती ,उफ़ तक कोई न करता |
फट गया थैला संस्कारों का ,निशिदिन जाये झरता ||
इस बेरहम स्वार्थ ने ,दुनिया आज छली ||
साधो …………………………………………………………||
नैसर्गिक संबंधों में भी अब तो ,होने लगी मिलावट |
मुखौटे पे ओढ़ मुखौटा ,नकली हुई सजावट ||
बाजारवाद के इस युग में ,ढूंढे मिले न असली |
साधो …………………………………………………………||
सत्ता के बाजार में बिकती ,देखो चारणचारी |
मदिर –मस्जिद लगे हड़पने, मजहब के व्यापारी ||
इन मगरमच्छों से कैसे बचे ,मुझ जैसी मछली |
साधो ……………………………………………………..||