सामाजिक

पुरानी चीज़ों का सदुपयोग करें

दिवाली नज़दीक आ रही है, तो ज़ाहिर सी बात है सबके घर के कोने-कोने की साफ़ सफ़ाई होगी। खासकर स्टोर रूम और अलमारियों की। पर देखने वाली बात ये है की पिछले दस सालों में कुछ चीज़ों का उपयोग नहीं हुआ होता फिर भी हम, “कभी काम आएगी सोचकर वापस साफ़ करके रख देते है, और यूँ हमारा स्टोर रूम और अलमारियों की हालत कबाड़ खाने से भी गई गुजरी हो जाती है”। या तो फिर महज़ दो सौ रुपये में कबाड़ी को बेच देते है। पर ये ख़याल किसीके मन में नहीं आता की तो क्या हुआ हमारे उपयोग की नहीं, किसी न किसी जरूरतमंद को इन चीज़ों की बेहद आवश्यकता होगी, क्यूँ न उनको दे दें। किसीकी जरूरत पूरी हो जाएगी और हमारे हाथों एक नेक काम हो जाएगा।
हमारे आसपास ऐसे बहुत सारे लोग है, जो भीख मांग कर अपना गुज़ारा करते है। उन्हें ढूँढ कर उनको जिस चीज़ की आवश्यकता हो वो उन्हें दे सकते है।
हमारे देश में सामाजिक मुद्दों में एक बहुत ही गंभीर मुद्दा आर्थिक असमानता के चलते भीख माँगने की समस्या का है। और यह बात तब ज़्यादा गंभीर हो जाती है जब इसमें छोटे बच्चों को भी शामिल कर दिया जाता है। भारत में बाल भिखारियों की संख्या बहुत बड़ी है। एक ऐसी उम्र में जब इन बच्चों को प्यार और देखभाल के साथ पोषण की जरूरत होती है, अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य की जरूरत होती है ना कि दो वक्त की रोटी का जुगाड़ इन मासूमों के सर मढ़ दिया जाए। इन सारी चीज़ों से अधिकांश बच्चें वंचित है। और अपनी आजीविका के लिए भीख मांगने के लिए मजबूर है।
वो पसीजते मासूम जो दो वक्त की रोटी जुटाने की जद्दोजहद में खेलने कूदने की उम्र में उम्र से काफ़ी बड़े हो जाते है, उसकी अंदरूनी आहत का तो अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल है।
आलिशान गाड़ी की खिडकी से झाँककर
सिग्नल पर फूल या खिलौने बेचने वाले बच्चों की आँखों में ढूँढना कभी असंख्य भाव मिलेंगे। एक लालसा, एक कमी, एक तड़प, एक इर्ष्या, तो कभी दो पाँच रुपये मिलने के बाद की खुशी, शून्य से तकते उस बच्चे की आँखों में गूँजते है कुछ स्थगित, हतोत्साहि सपने एक उम्मीद एक आस की यहाँ से पाँच रुपये मिल जाए तो दो पाऊँ से एक पहर की पेट की आग बुझा लूँ।
इन बच्चों में कई होनहार बच्चों की पढ़ने लिखने की ख़्वाहिश भीतर ही ध्वस्त हो जाती होगी। अगर हम आर्थिक तौर पर सक्षम है तो उसका हाथ थामकर एसे किसी बच्चे का जीवन सँवारने में सहायक बन सकते है।
कहाँ कोई ओर शौक़ पालना परवड़ता है फटे पुराने जूते-कपडों में साल गुज़र जाता है। सवाल ये नहीं की ये इनकी किस्मत है, सवाल ये है हम क्या कर सकते है इनकी किस्मत सँवारने की ख़ातिर। पर हमें पता नहीं होता कौन सही में सच्चा है कौन झूठा। इसलिए किसीको भी पैसा मत दो।
ज़्यादा कुछ नहीं बस अपने बच्चों के कुछ कपड़े, जूते, खिलौने, किताबें ज़्यादा पुराने होने से पहले जरुरतमंद बच्चों में बाँट दे तो इनकी बहुत बड़ी मदद हो सकती है।
इनको काम दें ओर भीख नहीं पर काम दिलाकर मेहताने के तौर पर पैसे दें,
समाज मैं समानता तो नहीं ला सकते पर ऐसे बच्चों के प्रति हम सबका भी कुछ फ़र्ज़ बनता है। आत्मग्लानी से अच्छा है आत्मसंतोष पाएँ। एक नेक काम करके जो संतोष मिलता है वो करके क्यूँ ना समाज के प्रति अपना फ़र्ज़ निभा लें।
तो आज से प्रण लें की अपने घर की पुरानी चीज़ों का सदुपयोग किसी जरुरतमंद की मदद करने में करेंगे ना की महज़ 100 रुपये के लिए रद्दी वालें को देंगे।।

— भावना ठाकर ‘भावु’

*भावना ठाकर

बेंगलोर