जनता को जनता ही रहने दो
राजाओं – महाराजाओं के समय की बातें अलग थीं। उस समय हर राजा की प्रजा होती थी हजारों….लाखों….। जिस राजा के अधीन प्रजा की जितनी अधिक संख्या होती थी, वह राजा उतना ही बड़ा होता था। बड़ी प्रजा, बड़ी भूमि, बड़ा भूपति। इन बेचारी प्रजाओं ने कई तरह के राजा देखे हैं। राम और रावण भी देखे हैं। कृष्ण और कंस भी देखे हैं। कई को बदलते और कई को सुधरते भी देखे हैं। खड़ाऊ रखकर राज्य करते भी देखे हैं तो सौ भाइयों के शवों पर सत्तारूढ़ होते भी। प्रजा सब देखती थी। कभी मूक रहकर तो कभी…..। गोस्वामी तुलसीदास की चौपाई भी प्रासंगिक है जिसमें राजा को चेताया गया है- “जासु राज निज प्रजा दुखारी। सो नृप अवसि नरक अधिकारी।।”
जमाना बदला तो प्रजा भी जनता में बदल गई। राजाओं की जगहें चयनित प्रतिनिधियों ने ले ली। राजा अब राजा नहीं रहे। लोकतन्त्रात्मक पद्धति में राजा भोज और गंगू तेली समान अधिकारी हो गए। इन दोनों की हैसियत “एक मत” की है। मतदान महोत्सव में मूल्य निर्धारित है, एक व्यक्ति-एक मत। राजा- प्रजा बराबर। यह बात अलग है कि मतदान कितना निष्पक्ष है! कभी- कभी बैलेट और बुलेट के विकल्प भी आए। नोटों के बंडल तथा वादों के लॉलीपॉप तो सदाबहारी हैं। जातिवाद, क्षेत्रवाद तथा संप्रदाय वाद भी बढ़ चढ़कर भूमिका निभाते हैं। कभी घोषित और कभी अघोषित आपातकाल भी अभिन्न अंग है। जन सेवक मतदान होते ही जनस्वामी बन जाते हैं। विकास की भ्रूण हत्या होती रहती है किंतु किसी को कानोंकान खबर नहीं होती। इसी चलन में जनता ईद के चाँद के आने का इंतजार वर्षों से रोज कर रही है। जब निराश होती है तो मानस की यह चौपाई गुनगुना लेती है- “कोउ नृप होय हमें का हानी। चेरि छोड़ि होइबे ना रानी।।”
अभी स्थिति थोड़ी अलग किंतु विचारणीय है। दल से दलदल में फँसी जनता अब दो खेमों में बँट रही है। ये खेमे अंधभक्त और चमचा के रूप में नामित हैं। इन दोनों का न कोई उद्देश्य है, न कोई लक्ष्य और न कोई दृष्टिकोण। कोई अंधभक्त या चमचा क्यों है, उसे भी पता नहीं। उसका अंधभक्त या चमचा होना, उससे अधिक उसके सामने वाले की कटेगरी पर निर्भर है। जब तक कोई अकेला है तब तक वह जनता है। एक से दो होते ही वे या तो अंधभक्त हो जाते हैं या चमचे या एक अंधभक्त एक चमचा।
विचारणीय बात यह है कि अंधभक्त या चमचा बनते ही वह व्यक्ति “जनता” नहीं रह जाता। (आम जनता इसलिए नहीं कह सकते क्योंकि उस पर केजरीवाल का स्वत्वाधिकार है।) जनता जब तक जनता है, वह शक्ति है, वह लोकतन्त्र का आधार है, वह महादानी है, वह सरकार-नियंता है। ज्योंही जनता किसी “वाद”, किसी “खेमे”, किसी “गुट” या किसी खास “विशेषण” के पिंजरे में प्रवेश कर जाती है, वह बँट जाती है। फिर तो दो गुटों, दो खेमों या दो विशेषणों की लड़ाई होने लगती है। चालाक प्रत्याशी या जन प्रतिनिधि या सरकारें गर्म तवे पर रोटियाँ सेंकने लगती हैं।
प्रजा से जनता बनने के सफर में सर्वाधिक भूमिका जनता ने ही निभाया है। बारम्बार बलिदान से मतदान तक का महादान जनता ने ही दिया है। जनता जब जनहित में फैसले लेती है तब उसके प्रतिनिधि नियंत्रित रहते हैं। जब जनता अंधभक्त या चमचा या ऐसा ही कुछ बन जाती है तो जनप्रतिनिधि निरंकुश हो जाते हैं। जनशक्ति किसी अन्य शक्ति के अधीन हो जाती है। जनता की लगाम किसी अन्य के हाथों में आ जाती है। इसलिए जनता से आग्रह है कि वह जनता ही रहे, अंधभक्त या चमचा न बनें।
— डॉ अवधेश कुमार अवध