सामाजिक

हमारे दुःख का मूल कारण हमारी असीमित इच्छा है

हमारे पास कुछ मूलभूत ज़रूरतें हैं जो हमें लगता है कि हम उनके बिना नहीं रह सकते। सबसे बुनियादी जरूरतों में भूख, कपड़े और आश्रय हैं, हमारे परिवार और दोस्तों से हमें जो प्यार मिलता है, वह हमारी जरूरत के रूप में प्रकट नहीं हो सकता है, लेकिन यह हमारी बुनियादी आवश्यकता है अन्यथा हम उपेक्षित और अवांछित महसूस करते हैं। हमारी ज़रूरतों को पूरा करना हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि हमारे अस्तित्व के लिए आवश्यक हैं। जब हमें भूख लगी हो, तब हमें खाना पड़ता है जब पेशाब लगी हो तब पेशाब करने की आवश्यकता होती है। हमें सुरक्षित रहने के लिए सुरक्षा संबंधित बुनियादी जरूरतों को पूरा करना होगा। जब हम बहुत प्यास होते हैं तो हम खनिज पानी या कोला के बारे में नहीं सोचते हैं, और हमारी बस हमारी प्यास बुझाने के लिए पानी है।
इच्छा वह है जो हम अपने लिए चाहते हैं।यह इच्छा कमजोर या बहुत प्रबल हो सकती है, अगर हम कुछ के लिए एक मजबूत इच्छा महसूस करते हैं, तो हम अपने लिए इसे प्राप्त करने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं। इच्छा हमारे अस्तित्व के लिए मूलभूत और आवश्यक नहीं है, और ऐसा नहीं है कि हम जिन चीज़ों की इच्छा रखते हैं वे बिना जीवित रह सकते हैं। एक और महत्वपूर्ण बात यह याद रखना है कि इच्छाएं अनंत हैं, और हम कभी भी इच्छाओं से पूरी तरह से संतुष्ट नहीं होते हैं।
जब-जब हमारी दृष्टि अभाव की ओर जायेगी, तब-तब जीवन में अशांति का प्रवेश एवं मन में उद्वेग होगा। आज हमारी स्थिति यह है कि जो हमे प्राप्त है उसका आनंद तो लेते नहीं, वरन जो प्राप्त नहीं है उसका चिन्तन (कभी-कभी चिंता) करके जीवन को शोकमय कर लेते हैं। आज हमारी आशा स्वयं से ज्यादा दूसरों से हो गई है और दूसरों से हमारी यही अपेक्षा हमें कभी सुख से रहने नहीं देती।
दुःख का मूल कारण हमारी आवश्यकताएं नहीं हमारी इच्छाएं हैं। हमारी आवश्यकताएं तो कभी पूर्ण भी हो सकती हैं मगर इच्छाएं नहीं। प्रकृति का एक अटूट नियम है और वो ये कि यहाँ आवश्यकता छोटे- छोटे कीट पतंगों की भी पूरी हो जाती है मगर इच्छाएं तो बड़े-बड़े सम्राटों की भी अधूरी रह जाती है। एक इच्छा पूरी होती है तभी दूसरी खड़ी हो जाती है।
इसलिए शास्त्रकारों ने लिख दिया
” आशा हि परमं दुखं नैराश्यं परमं सुखं  “
दुःख का मूल कारण हमारी दूसरों से आशा ही हैं। हमे संसार में कोई दुखी नहीं कर सकता, हमारी अपेक्षाएं ही हमे रुलाती हैं। यह भी सत्य है कि यदि इच्छायें न होंगी तो कर्म कैसे होंगे ? इच्छा रहित जीवन में नैराश्य आ जाता है लेकिन अति इच्छा रखने वाले और असंतोषी हमेशा दुखी ही रहते हैं।

— डाॅ. पंकज भारती

डॉ. पंकज भारती

सचिव- बिहार माध्यमिक शिक्षक संघ इकाई- तरैया, सारण कार्यरत:- उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, इसुआपुर, जिला- सारण, बिहार। मास्टर ट्रेनर- SCERT Patna, Bihar निवास स्थान:- छपरा, सारण, बिहार संपर्क- (Mob/WhatsApp) 7549519596