धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

झारखंड के कुडमि हाशिये में !

“खट मरे मुर्गा, बिलाय खाये अण्डा ” यह कहावत छोटा नागपुर पठार में चिरकाल से बसने वाले और झारखंड की सबसे बड़ी आबादी कहे जाने वाले कुडमियों पर अक्षरस :लागू होता है । झारखंड की कुल आबादी का 24% प्रतिशत से ऊपर का यह जनजाति अपने हक अधिकारों से पूरी तरह वंचित है, और ढोल नगाड़ों के साथ आज हर मोड़ पे अपने आधिकारों को लेकर आंदोलनरत हैं ।
झारखंड अलग राज्य बने बाइस साल बीतने के बावजूद राज्य और झारखंडियों के जीवन में बदलाव का कोई चिह्न कहीं से नजर नहीं आता । आज भी झारखंडी ढोर-डांगर का जीवन जीने को विवश और लाचार है । सरकार बदलती रही, नेताओं का जीवन बदलता रहा । मामूली कार्यकर्त्ता से कई विधायक बन गये और मंत्री भी लेकिन हाय रे सोना जैसन झारखंड की जनता वे आज भी सूअरों का जीवन जीने को अभिशप्त हैं ।
अगर हम बात करें झारखंड की सबसे बड़ी आबादी कुडमियों की जो घोर उपेक्षित है खुद एक कबिलायी नस्ल की जनजाति है और यह बात आईने की तरह साफ भी झलकती है कि कुडमि कोई जाति नहीं बल्कि चिरकाल से यह एक जनजाति रही है और इसकी अपनी एक विशिष्ट पहचान है,इसकी अपनी भाषा, अपनी संस्कृति,अपना परब और अपना देउआ-भूता रहा है और आज भी है जो अन्य जातियों के खांचे से इन्हें अलग करता है । छल कपट कहां से शुरू हुआ वो देखिए-
1931की जातिये जनगणना के दौरान तक यह आदिवासी था, सेंसक रिपोर्ट के अनुसार 1871से 1931 तक कुडमि भी जनजातियों की सूची में शामिल था । 1931 के ट्राइब लिस्ट में 13जातियां शामिल था फिर न जाने किस षड़यंत्र के तहत 1950 में संविधान निर्माण के समय में 12जातियों को एस टी में शामिल कर लिया गया, जिसमें कुडमि छुट गया । तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इसे लिपिकीय भूल कहा,यह भूल आज कुडमियों के लिए शूल बन चुका है । पिछले सतर सालों से कुडमि एस टी लाभ से वंचित है । एक बात और यू पी, बिहार के कुर्मी और झारखंड छोटा नागपुर के कुडमियों के बीच कोई समानता नहीं है,पहनावा-ओढावा ही नहीं, धर्म कर्म में भी जमीन आसमान का अंतर है । यू पी, बिहार के कुर्मी गोत्रधारी होते हैं और देवी देवताओं की पूजा करते हैं लेकिन झारखंड के कुडमि गुसटिधारी होते हैं और प्रकृति के उपासक होते हैं,यह पुरखों और अपने देउआ-भूता को पूजा – पासा करते हैं । गुसटिधारी कुडमि छोटा नागपुर पठार के बाहर नहीं पाये जाते हैं, मतलब कि झारखंड के कुडमि जनजाति हजारों सालों से एक ही क्षेत्र में दुनिया से अलग थलग रहते थे । इसे आप भौगोलिक अलगाव भी कह सकते हैं ।
कुडमि कोढियागिरी नहीं करता है,यह जनजाति शुरू से ही मेहनती और लड़ाकू क़बीला रहा है । कृषि आधारित जीवन जीने वाला यह जनजाति, कभी जाति मजहब की बात भी नहीं करता है । यह विशुद्ध रूप से प्रकृति पूजक होते हैं । यह आकृति के वनिस्पत प्रकृति उपासना पर जोर देते हैं । उसी अनुरूप बारह मासे अपना तेरह परब भी मनाते हैं ।
अगर हम कुडमि क़बीलाई की लड़ाकू प्रवृत्ति की बात करें तो आज भी कहा जाता है कि कुडमि बहुत बड़ा राढ-चुहाड होता है और झगड़ालू भी । पर यह भी उतना ही सच है जल्दी से कुडमि किसी से उलझता नहीं है । और यदि कोई उसे छेड़ता है तो उसको वे छोड़ते भी नहीं है । क्योंकि यह किसी की अधिनस्ता स्वीकार नहीं करता और न किसी के अधीन रहना पसंद करता है ।
यही कारण है कि जब ब्रिटिश हुकूमत भारत देश के कोने-कोने में अपनी पंजा फैलाते जा रहा था तब छोटा नागपुर के सरायकेला खरसावां के रघुनाथ महतो ने अपने मुठी भर लड़ाकू दोस्तों को एकजुट कर, अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह कर दिया और गुरिला लड़ाई के जरिए अंग्रेजों को नाकोदम-बेदम कर दिया था । उसका नारा था ” अपना गांव अपना राज, दूर भगाओ विदेशी राज ”
1769-1778 तक चलने वाले इस लड़ाई का नेतृत्व यही कुडमि क़बीलाई योद्धा शहीद रघुनाथ महतो ने किया था । बाद में उनका लड़ाकू दल-दस्ता अंग्रेजी गुप्तचरी का शिकार हो गए। एक गुप्त अड्डे पर गुप्त मीटिंग के दौरान अंग्रेजी गोलियों के निशाने पर आ गए थे । चुहाड विद्रोह के नाम से जाना जाने वाला यह अंग्रजी हुकूमत के खिलाफ पहला जन विद्रोह था । और अंग्रेजो के खिलाफ भारतीय इतिहास का पहला विद्रोह भी यही था । परन्तु यह विद्रोह भारतीय इतिहास के पन्नों में जगह न पा सका । जगह मिली ” 1857 ” का सिपाही विद्रोह को । जनजाति कुडमियों ने यहां भी अंग्रेजी गोलियां खाई पर इतिहासकारों ने चूहाड विद्रोह को इतिहास के पन्नों में जगह देना भी उचित नहीं समझा । कुडमि यहां भी छला गया । बेनाम रहा ।
आज कुडमि फिर सड़कों पर है, फिर रेलवे की पटरियों पर रात जाग रहे हैं । कोने कोने से Kudmi ST की मांग उठ रही है । यह लड़ाका कबीला अलग राज्य के लिए लड़ा और सबसे ज्यादा कटा-मरा ।शहीद शक्तिनाथ महतो, शहीद निर्मल महतो जैसे कबिलाई लडाकुओं ने सीने पर गोलियां खाई । तो बिनोद बिहारी महतो ने अपने अंदाज में झारखंडियों को जगाने का काम किये । नारा दिये-” पढ़ो और लड़ो ” आज यह कुडमि कबीला पूरी तरह जाग उठा है तो विरोधियों की नींद उड़ गई है और वह अनर्गल बातें करने लगे हैं । कुडमियों को उनके हक अधिकारों को से वंचित रखने के कुचक्र रचे जा रहे हैं । कुडमियों को उनके अधिकारों से वंचित रखने से अब यह समुदाय किसी भी सरकार की सेहत को बिगाड़ सकते हैं ।

कुडमि कौन ? देश के अन्य कुर्मीयों से यह अलग क्यों है ?
कुडमि एक ट्राइब है । एक जनजाति है-कबिला जनजाति ! एक नसल के, जिसके जीन में पिछले पांच हजार सालों से मिलावट नहीं हुआ है । और पैंसठ हजार सालों से यह जनजाति एक कबिलाई जीवन जीते चले आ रहे हैं । इसका मूल बास क्षेत्र छोटा नागपुर पठार रहा है, जहां उसने सबसे पहले धान के खेत बनाए एवं गांव बसाए क्योंकि यहां उनकी जनसंख्या सबसे अधिक थीं । एकासी गुसटियों में बंटा यह कुडमि जनजाति आज भी झारखंड में लगभग चालीस से पचास हजार गांवों में बसा हुआ है । एक नस्लीये जनजाति होने के कारण यह अपनी गुसटि में बिहा-शादी नहीं करते हैं । जैसे बंसिरयार गुसटि का लड़का बंसिरयार गुसटि की लड़की से बिहा नहीं कर सकता है । उसके लिए अन्य गुसटि की लड़की ढूंढनी पड़ती है । उसी तरह हर गुसटियों के नाम पेड़-पौधे, जीव-जंतुओं से जुड़े हुए होते हैं । उदाहरण के लिए मुतरूआर गुसटि का टोटेम मसलन चिन्ह, मकड़ी-मकडा होता है,यह गुसटि मकडा को मारता नहीं, उसका संरक्षण करता है, बचाता है,उसी प्रकार बंसिरयार गुसटि का टोटेम बांस है,यह गुसटि बांस काटेगा नहीं, उसका करील नहीं खायेगा । अन्य गुसटियों के साथ यही बात लागू होती है ।
इस जनजाति की अपनी एक भाषा भी है जिसे कुडमाली कहा जाता है और कुडमि कबिला त्यौहार नहीं-परब मनाता है । उसके बारह मासे तेरह परब होते हैं । जिसमें करम परब,जिउतिया परब, भोक्ता परब और बांदना-सोहराय परब प्रमुख है । इस जनजाति में बिहा और श्राद्ध-मरखी में बाभनों का सहयोग लेना वर्जित है- मनाही है । शादी-बिहा बहनोई या फिर बुजुर्ग की देख-रेख में और श्राद्ध-मरखी भइगना(भांजे) की अगुवाई में किया जाता है । यह समुदाय मूलतः प्रकृति पूजक होता है, काल्पनिक किसी देवी-देवता की पूजा यह नहीं करता है । प्राकृतिक जीवन पद्धति से इस कबिला का जीवन पद्धति संचालित होता है । आज भी इस समुदाय के अधिकांश अहिडा-गहिडा,खेत पहाड़ की तलहटी में अथवा जंगल-झाड के बीच में मिलना इस बात को साबित करता है कि इनके पूर्वज कितने पूराने है । ब्रीटिश सरकार ने 1908 में इनकी जमीनों पर CNT लगा कर संरक्षित कर दिया ताकि गैर जातिये लोग इनकी जमीनों को हड़प न सके । आज़ भी झारखंड-छोटा नागपुर के कुडमियों की जमीनों पर CNT act लगा होना भी यह पुख्ता सबूत है कि झारखंड के कुडमि जनजाति थे और आज भी है,इन तथ्यों को कोई झूठला नहीं सकता है । वहीं भाषा के मामले में 1903 तक पूरा राढ क्षेत्र कुडमालि था । कहा जाता है कि हर दस माइल के बाद बोली -चाली में कुछ-कुछ परिवर्तन होना लाजिमी हो जाता है । बिगत सतर सालों में कुडमालि के उच्चारण के साथ यही हुआ, जगह विविधता के कारण, कुडमालि खोरठा, नागपुरी,पंचपरगनिया,सादरी में बांट दिया-बंट गया । परन्तु कुडमालि गांवों के नक्शे में आज भी जहरथान, मडयथान, विद्यमान है जो इस बात को इंगित करता है कि कुडमियों के गांव में पहले कहीं कोई मंदिर नहीं था । इन गांवों में जब धार्मिक अति क्रमण हुआ तो कहीं शिव मंदिर देखने को नहीं मिला । लेखक खुद इस बात का गवाह है कि चालीस साल पहले और उसके जन्म के दस साल बाद गांव में एक छोटा सा शिव मंदिर गांव के सेठ ने बनवाया था ।
दो पीढ़ी पूर्व यह जनजाति बाभनों के चंगुल में फंसकर हिन्दू समझने की भूल कर बैठा है । इस कारण कुडमि न जनजाति रह गया और न हिन्दू ! बीच में लटका हुआ है । इन सबके बावजूद इस जनजाति में जो मौलिक चीज बचे हुए हैं वो हैं उनकी पुरखों की संस्कृति,नेग-नेगाचारि जिसके बलबूते और दम पर ST के दरवाजे पर यह जनजाति बार बार दस्तक दे रहा है , खंभ ठोक रहा है ।
कुडमि विशिष्ट जनजाति कैसे है,आइए उनकी संस्कृति को जानते हैं ।
विवाह :- कुडमियों में बिहा-विवाह प्रथा अनोखा है ! सिंदुरा दान के पूर्व लड़का-लडकी को नहीं देख सकता और लड़की लड़का को नहीं देख सकती है । विवाह के पूर्व लड़कों का आम विवाह और लड़कियों की महुआ विवाह होता है फिर सिनई मिलान, तब शादी सम्पन्न होती है । विवाहित लड़कियां लोहे की खाढू/मुठिया पहनती हैं । यही उस सुहागन की असली निशानी होती है । कुडमि जनजाति में न मंगलसूत्र और न वरमाला का रिवाज है । इस जनजाति के लिए ये दोनों वर्जित है । पर अधिक पैसे हो जाने से कुछ हिन्दू वादी कुडमि कौवों ने यहां भी मोर का पंख लगाने शुरू कर दिए हैं और इस तरह यह चलन यहां भी शुरू हो गया है ! इस जनजाति में,नियम नहीं प्रथा है, सूचना नहीं,समझ है, कानून नहीं, अनुशासन है,भय नहीं, भरोसा है, शोषण नहीं, पोषण तत्त्व विद्यमान है,आग्रह नहीं,नेहर-अरदास है, संपर्क नहीं, संबंध है,अर्पण नहीं समर्पण है, मैं नहीं हम है,आत्मप्रशंसा नहीं, सामूहिकता है, हमें तोड़ना नहीं, जोड़ना आता है । कुडमि कबिला में यह सारे गुण आज भी अक्षरस मौजूद हैं। इतना ही नहीं यह अपने हाथों, पूजा – पासा,चाढा-पाढा होता है । यह बाहरी नसल से विवाह नहीं करता, झाड़ फूंक में विश्वास करता है और अपने पूर्वजों को पूजते हैं तथा प्राकृतिक शक्तियों में आस्था रखते हैं
एक ऐसा जनजाति जो एक विशिष्ट क्षेत्र में हजारों सालों से बिल्कुल अकेले-एकांत रह पनपती है, इसीलिए उसकी भाषा, संस्कृति सभ्यता व नसल विशिष्ट अर्थात अद्वितीय होती है । कुडमि जनजाति भी एक ऐसा ही नसल है ।
कुडमि जनजाति युगों युगों से एक निश्चित भू-भाग में हजारों सालों से रहते चले आ रहे हैं । उत्तर में पारसनाथ से दक्षिण में मयूरभंज एवं पूरब में मेदनीपुर से पश्चिम में सरगुजा तक कुडमि गांवों का विस्तार यह सिद्ध करता है कि यह कुडमि परगना अपने आप में एक सभ्यता है जो सिंधु घाटी सभ्यता पूर्व से आज तक सतत् जीवंत प्रवाहित है ।
कुडमि जनजातीय समाज में मामी से मज़ाक नहीं चलता, भैंसुर से छूआइत-छुआछूत रहता है, साले की पत्नी को बहिन मानी जाती है और पत्नी से बड़ी बहिन से मजाक नहीं किया जाता है ।
मरखी में दसवें दिन शाम को घाट कमान से शुद्ध होते और रात को मंगल गायन होता है । इतना सब कुछ बचे रहने के बावजूद इस जनजाति ने पिछले दो पीढ़ियों से सिर्फ खोया है, पाया कुछ नहीं । पहले तो कुडमियों को एक षड्यंत्र के तहत तीन राज्यों बंगाल, बिहार और उड़ीसा में बांट दिया, इस कारण कुडमालि की पढ़ाई किसी राज्य में शुरू हो न सकी, ऐसे में कुडमियों की मजबूरी हो गई कि बंगाल में बंगला, उड़ीसा में उड़िया और बिहार में हिन्दी पढ़ें । परिणाम उसकी मातृभाषा छिन्न भिन्न हो गई-संक्रमित हो गई। दोगला हो गई। मैथली – मगही की कुसंगत में आकर, कहीं खोरठा, कहीं सादरी तो कहीं पंचपरगनिया बोली जानी लगी । अभी झारखंड – बंगाल में एस टी मुद्दा पूरा गरम है । पिछले माह बंगाल में कुडमि एस टी मुद्दे को लेकर संग्राम छिड़ा था । पांच दिनों की रेल टेका ( छेका) आंदोलन ने बंगाल सरकार से लेकर केन्द्र की भाजपा सरकार को नींद उडा दी थी । कुडमि एस टी मुद्दा अब कुडमियों के लिए जीवन मरन का प्रश्न बन चुका है, एक मिशन बन चुका है । इसको हासिल करना एक मकसद बन चुका है । सरकार पर दबाव बनाने के लिए ,अब झारखंड में आर्थिक नाकेबंदी की तैयारी हेतु अगले माह रांची में महाजुटान होने जा रहा है ‌।
कुडमि ST 2024 आम चुनाव एक बड़ा मुद्दा होने वाला है । हेमंत सोरेन सरकार रहेगा या जाएगा, यह कुडमि मत तय करेंगे । यहां कुडमि जनजाति का मामला नाज़ुक मोड़ ले चुका है । बस वक्त का इंतजार कीजिए !!

— श्यामल बिहारी महतो

*श्यामल बिहारी महतो

जन्म: पन्द्रह फरवरी उन्नीस सौ उन्हतर मुंगो ग्राम में बोकारो जिला झारखंड में शिक्षा:स्नातक प्रकाशन: बहेलियों के बीच कहानी संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित तथा अन्य दो कहानी संग्रह बिजनेस और लतखोर प्रकाशित और कोयला का फूल उपन्यास प्रकाशित पांचवीं प्रेस में संप्रति: तारमी कोलियरी सीसीएल में कार्मिक विभाग में वरीय लिपिक स्पेशल ग्रेड पद पर कार्यरत और मजदूर यूनियन में सक्रिय