कविता

बाल दिवस

दिल करता है, फिर से
मैं बच्चा, बन जाऊं ।।
सरपट भागूं , दौड़ लगाऊं
जल्द किसी के, हाथ न आऊं
सबके दिल में, मचा के हलचल
नन्हा एक, फरिश्ता कहलाऊं ।
दिल करता है, फिर से
मैं बच्चा, बन जाऊं ।।

बच्चों के संग, खेलूं कूदूं
जाति धर्म का, भेद भुला दूं
मेलों, बाजारों, त्यौहारों में
उमंगों के नये, फूल खिला दूं ।

नील गगन में, दूर उडूं जा
आशाओं के, पंख फैलाऊं ।
दिल करता है, फिर से
मैं बच्चा, बन जाऊं ।।

बारिश के मौसम में, फिर से
बहते जल में, नाव दौड़ाऊ
रंग बिरंगी, पतंग उड़ाकर
आसमान पर, मैं छा जाऊं ।
गर्मी की, छुट्टियां बिताने
नाना- नानी के घर जाऊं
बच्चों संग, मचा धमाचौकड़ी
आसमान को, सर पर उठाऊं ।

दिल करता है, फिर से
मैं बच्चा, बन जाऊं ।।

मेहमानों के, घर आने पर
घर में रौनक , छा जाने पर
कितना कौतूहल, बढ़ जाता था
उल्लास से मन, भर जाता था ।

भाग- दौड़ के, इस जीवन में
वे पल कहां से, वापस लाऊं
१४ नवम्बर, यानी बाल दिवस है
स्मृतियों को, पुनः सजाऊं ।

दिल करता है, फिर से
मैं बच्चा, बन जाऊं ।।
दिल करता है, फिर से
मैं बच्चा, बन जाऊं ।।

— नवल अग्रवाल

नवल किशोर अग्रवाल

इलाहाबाद बैंक से अवकाश प्राप्त पलावा, मुम्बई