दो कानों की भी सुन लें
आपके साथ हर समय रहने वाले ,सबकी अच्छी – बुरी सुनने वाले ;हम आपके ही दो कान हैं। आप ये मत समझें कि हम आपके मेहमान हैं।लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं कि हमारा नहीं कोई मान – सम्मान है!हमारी भी अपनी एक पहचान है।हम आपके दिमाग़ के पड़ौसी भी हैं ,इसलिए हमें भी तो कुछ ज्ञान है।हमारा भी कुछ न कुछ स्वाभिमान है।आपकी सब अच्छी- बुरी हरकतों; हरक़तों नहीं ,गतिविधियों का हमें पूरा – पूरा संज्ञान है।
हमें किसी से कोई ईर्ष्या नहीं है।परंतु अपनी अनदेखी भी हमें सहन नहीं है। लगता है परमात्मा ने हमें किसी मृत्युभोज की बची हुई पूड़ियों में से उठाकर दो सूखी हुई पिचकी-सी पूड़ियाँ यहाँ गालों के दोनों ओर चिपका दीं। उन्होंने हमारे हित के लिए कुछ अच्छा ही सोचा होगा, क्यों कि नहाते -धोते समय या वर्षा में भीगते समय वर्षाजल सीधे हमारे भीतर न चला जाए इसका पूरा – पूरा ध्यान रखा है। परन्तु शिकायत तो मुझे आपसे से है अर्थात आदमी से है। वह यह है कि आपने हमें लोहे या लकड़ी की खूँटी समझ लिया है। किसी की नेत्र दृष्टि कमजोर हुई या धूप में चश्मे की डंडियों को लिया और हमारे ऊपर टेक दिया।कभी आँखों ने कभी हमसे अनुमति ली या उसका आभार व्यक्त किया कि एक अनावश्यक बोझ हमारे ऊपर लाद दिया है ? नारियों ने अपने शृंगार के लिए झुमके, बालियां,लोंगें हमें छेद- छेद कर हमारे ऊपर ही टाँग डालीं! भला ये भी कोई बात हुई । सुंदरता में नाम हो मुखड़े का और हम दोनों लद्दू घोड़े की तरह लादे जाएँ ? हर मुखांग का इतना शृंगार कि कान तो अंधे और बहरे हैं !आँखों के लिए काजल, नाक के लिए नथुनिया या लोंग, होठों के लिए लिपस्टिक, गालों के लिए गुलाबी रूज, पूरे मुखड़े पर पोतने के लिए क्रीम, जाड़े के अलग ,गर्मी की अलग औऱ हमारे ऊपर बोझ ही बोझ। भला यह कौन सा औचित्य है?
मिस्त्री साहब को घुसेड़ने के लिए कानों के छेद ही मिले ,जो बचे हुए गुटके की गंदी और बदबूदार नशीली पुड़िया हमारे भीतर ही ठूँस डाली। टेलर मास्टर औऱ बढ़ई को भी हमीं मिले और अपनी घिसी हुई पेंसिल का ठूँठ अटकाने के लिए हमारा ही हैंगर बना डाला!उधर आँख के अंधे नयन सुख नाई ने बाल काटते -काटते कैंची हमारे ही ऊपर चला डाली औऱ हमें लहूलुहान कर डाला।भला ये भी कोई बात हुई ? जब देखा तो थोड़ी सी डिटॉल की फुरहरी से हमें सहला दिया और च्च ! च्च!! करते हुए अफ़सोस जाहिर करने का नाटक करने लगा। ग्राहक भी तिलमिलाया ,पर क्या करता बेचारा ,उसने भी भूल समझकर ज्यादा मुँह नहीं खोला।
पंडित जी ने भी अपने ज्ञान का सदुपयोग करने के लिए हमें ही पाया। अपने तीन धागों के जनेऊ को हमारे ऊपर ही टाँग दिया और लघु या दीर्घ शंका के समय हमारे ही ऊपर अंटा मार दिया।कभी कभी तो लोहे औऱ पीतल की चाबियों का गुच्छा ही हमारे ऊपर बोझ बना दिया ,नाम जनेऊ का और बोझ से मरें हम कान! वाह रे स्वार्थी इंसान! क्या इसीलिए दिखाता है अपनी कोरी शान। कुछ स्वावलंबी भी बनना सीख। क्यों माँगता है हम कानों से मदद की भीख ?
बचपन में मास्टर जी ने भी हमें सताने में कोई कमी नहीं छोड़ी। कमजोर बच्चों के कान मरोड़कर ही उन्हें सदबुद्धि उलीच डाली। अब कहाँ तक कहें अपनी पीड़ा! गाली हो या ताली , गीत हो या पटाखों का विस्फ़ोट !सब हमें ही सुनना है। हम तो जैसे किसी गाड़ी की कोई फालतू एक्सेसरीज हैं , जिन्हें खोल कर फेंक दो तो कोई फर्क नहीं पड़ता। परंतु एक बार भी क्या करके देखा ? करके देखो तो पता लग जाये कि कान का भी कुछ महत्त्वपूर्ण काम है ,उसके ऊपर क्यों लटका देते अनावश्यक झाम हैं? हमें तो आपके मुहावरों ने ही हमें कर रखा बदनाम है! कान का कच्चा होना, कान पकना, कान में तेल डालना, दीवारों के कान होना आदि आदि । अब आप ही सोचें कि यदि हम कच्चे होते आप एक बैलगाड़ी का बोझ हमारे ऊपर लादकर नहीं चलते! यदि पक जाते तो क्या आपके खाने से बच पाते? हमें केवल एक मशीन , श्रवण यंत्र मात्र समझ रखा है, देह का अंग नहीं समझा ,इसलिए हममें तेल डालने की बात होती है। यदि दीवारों के कान हुआ करते तो हमारी ही क्या आवश्यकता रहती? ये सब सोचने की बातें हैं। पर सोचे कौन? बस अपना उल्लू सीधा हो जाए औऱ क्या !
सुना है ।आप ही लोगों के मुँह से सुना है कि कहकर मन हलका हो जाता है। पर हमारे पास तो न मुँह है औऱ न ही मन। फिर भी अपनी बात ,अपनी वेदना ,अपनी शिकायत ,आपकी शिकायत आपसे से करेंगे ,कहीं जा भी तो नहीं सकते;आप से ही करेंगे। कर ली। यदि आप पर कुछ असर पड़ा हो ,तो बताना ।आपके पास तो एक अदद मुँह भी है।हम गूँगे अवश्य हैं ,पर बहरे तो कदापि नहीं। जो कुछ कहा है , वह होगा भी सही।हम कान हैं कान, बात को धर लेना अपने ध्यान। दो भाई ।जिन्होंने आज तक कभी भी एक दूसरे को नहीं देखा।देखेंगे भी नहीं।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’