संस्मरण – इनाम की अट्ठन्नी
# साहित्य संगम संस्थान राजस्थान इकाई
# विषय – झाँसी की रानी (स्वैच्छिक)
# विधा – संस्मरण
शीर्षक- इनाम की अट्ठन्नी
रानी लक्ष्मीबाई वीरता की प्रतिमूर्ति थीं. उनकी वीरता का गुणगान अंग्रेजों ने भी किया था. खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी. रानी लक्ष्मीबाई से संबंधित एक संस्मरण मैं कभी नहीं भुला सकती.
आज से लगभग पचास वर्ष पूर्व की बात है, जब मैं छठी कक्षा में पढ़ती थी. तब हिन्दी और संस्कृत के अध्यापक प्रायः धोती पहना करते थे और पंडित जी कहलाते थे. हमारे हिन्दी के अध्यापक भी उसका अपवाद नहीं थे. पढ़ाते बहुत अच्छा थे. एक-एक बात इतने आत्मविश्वास से कहते थे कि मन में घर कर जाती थी. कविता-वाचन में तो उनका कोई सानी ही नहीं था. हमें कक्षा में ही कवि-सम्मेलन का आनंद आ जाता था.
हमारी हिन्दी की पाठ्य-पुस्तक का आठवां पाठ सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा रचित कविता “झांसी की रानी” था. उस कविता के अठारह अनुच्छेदों को जिस संगीतमय सुर से उन्होंने पढ़ाया, वह भुलाया नहीं जा सकता. तीन दिन तक वह कविता चली और तीन दिन तक कक्षा का वातावरण संगीतमय हो चला था. जब वह पढ़ा रहे थे, तो एक दिन हमारे प्रधानाचार्य, जिनको हम आचार्य जी कहा करते थे, कक्षा के सामने से निकले. निकले क्या खड़े ही रहे और कविता-वाचन का आनंद लेते रहे. फिर अंदर आकर उन्होंने पंडित जी के कविता-वाचन की तो भूरि-भूरि प्रशंसा की ही, छात्रों के अनु-वाचन की भी जी खोलकर प्रशंसा की. अगले दिन प्रार्थना-सभा में भी इस बात का उल्लेख करना न भूले और एक उद्घोषणा कर दी कि अगली बालसभा में छठी कक्षा के छात्रों के लिए कविता-पाठ प्रतियोगिता होगी. सभी प्रतियोगी “झांसी की रानी” कविता का पाठ करेंगे. जिसका कविता-पाठ सबसे अच्छा होगा, उसे अठन्नी इनाम में दी जाएगी.
इनाम की रक़म पर किसी का ध्यान नहीं था, इनाम तो इनाम ही था. फिर उन दिनों अठन्नी में बहुत कुछ आ भी जाता था. कविता के रसिक छात्र-छात्राएं तैयारी में जुट गए. मैंने घर जाकर पिताजी को सुनाई. उन्हें भी धुन बहुत अच्छी लगी. उसके बाद अभ्यास करने के लिए मुझसे रोज़ कई-कई बार सुनते थे.
इसके दो कारण थे. एक तो उन्हें भी धुन भा गई थी, दूसरे इसी बहाने मेरा एक अच्छे गीत का अभ्यास हो रहा था. जब मैंने प्रतियोगिता की बात बताई तो अभ्यास और पैना हो गया. जहां तक इतनी लंबी कविता के याद होने की बात थी, कक्षा में पढ़ते-पढ़ते मुझे पूरी कविता याद हो गई थी, फिर घर में सबके सहयोग ने गीत और गले में निखार ला दिया था. पिताजी की शुभकामनाओं और आशीर्वाद के साथ बड़े आत्मविश्वास के साथ विद्यालय गई और प्रतियोगिता में प्रतिभागिता की और मैं अपने उस तथाकथित पहले कवि-सम्मेलन में सफलता के झंडे गाड़ पाई थी. इनाम की अठन्नी मुझे मिली थी. उस अठन्नी को पाकर मैं फूली नहीं समाई. बाद में तो इस जादुई धुन में मेरी हिन्दी-सिन्धी की दो-तीन लंबी राष्ट्रीय कविताएं भी बनीं जो कवि-सम्मेलनों की जान बन गईं.
ख़ैर, मैं अपने ज्यॉमेट्री बॉक्स में इनाम की अठन्नी रखकर उछलती-उछलती घर वापिस आई. फिर तो मुझे घर में भी बहुत इनाम मिले. पहला इनाम मम्मी की तरफ से मेरा मनपसंद खाना, दूसरा बड़ी बहिन की तरफ से एक सुंदर-सा कढ़ाई किया हुआ रूमाल, जो कई वर्षों तक मैंने संभाल कर रखा था और तीसरा पिताजी की तरफ से एक अठन्नी उस दिन और फिर रोज़ के जेबखर्च में इज़ाफा. यह तो चक्रवृद्धि ब्याज की तरह था.
आप जानना चाहेंगे कि आज ये बातें मुझे क्यों याद आ रही हैं. दरअसल छठी कक्षा की पाठ्य-पुस्तक की पुस्तक के दसवें पाठ के रूप में जब मैंने यह कविता हर वर्ष की तरह उसी संगीतमयता के साथ पढ़ाई तो सारा वातावरण सचमुच मधुर संगीतमय हो गया था. कल इस संगीतमयता का तीसरा दिन था. इन दिनों में एक विशेष बात हुई थी. जो छात्र प्रायः कक्षा में आने-पढ़ने से कतराते थे, वे भी इन दिनों में बाकायदा पुस्तक खोलकर तन्मयता से पढ़ रहे थे. उसके बाद सभी प्रश्न-उत्तर भी पूछे-बताए जा चुके थे. मेरी तरफ से तो यह काम सम्पूर्ण हो चुका था, लेकिन आज कक्षा में आते ही मुझे कुछ और नज़ारा मिला.
सभी छात्र-छात्राएं वही कविता खोले बेसब्री से मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे. मेरे आते ही पांच छात्राएं खड़ी हो गईं और कहने लगीं, “मैडम, हम कविता सुनाना चाहती हैं.” मुझे और क्या चाहिए था! मेरे सामने वही पचास साल पहले वाला दृश्य उपस्थित हो गया, जबकि मैंने भी खड़े होकर कहा था कि “सर, मैं कविता सुनाऊं?” एक छात्रा ने तो कह ही दिया ” मैडम, मैं तो पूरी कविता याद करूंगी. जब आप छठी कक्षा में इतनी बड़ी कविता याद कर सकती हैं तो हम क्यों नहीं कर सकतीं?” फिर तो पूरी कक्षा ने कहा, हम भी याद करेंगे.
मज़े की बात यह है कि हमारे समय से ही छठी कक्षा में यह कविता हमेशा से ही रही है, भले ही पाठ्य-पुस्तक अनेक बार बदल चुकी है. 25 वर्ष से तो हर वर्ष मैं यह कविता इसी तरह पढ़ा रही हूं, लेकिन बहुत अच्छे-अच्छे सुरीले छात्र-छात्राएं होने पर भी ऐसा नज़ारा नहीं मिला. इस नज़ारे ने मुझे एक बार फिर अपनी पचास वर्ष पहले वाली “इनाम की अठन्नी” याद दिला दी.
अब तो इनाम की अठन्नी को जीते 67 साल हो चुके हैं.
— लीला तिवानी
नई दिल्ली