मुक्तक/दोहा

मुक्तक

चलो जीवन को फिर साँचे में ढालें,
प्यार की कुछ, तकरार की हों बातें।
रूठें- मनायें, रेत के घरौंदे भी बनायें,
टूटे स्वप्न, नये ख़्वाब की कुछ बातें।
वह गुड्डे गुड़ियों की शादी, छोटी रसोई,
वो लकड़ी का चुल्हा, झूठ मूठ की रोटी,
कभी गिट्टु खेलें, छुपम छुप आईसपाइस,
सजना संवरना, बातें कभी खोटी खोटी।
न किताबों का बोझा, कभी सर पर होता,
खेलना- खाना थे, बस उस दौर के सपने।
संयुक्त परिवारों का, वह दौर था पुराना,
गली गाँव से नाता, ग़ैर भी होते थे अपने।
रिश्ते सभी से दादी दादा, बुआ ताऊ चाचा,
मामा के गाँव सब, मामी नानी या नाना।
चलो फिर से पुराने कुछ रिश्ते खोज लायें,
शादी ब्याह में हो, लोक गीतों का तराना।
— अ कीर्ति वर्द्धन