कविता

तवारीख

फट जाता हर महीने एक पन्ना
अपनी तवारिख का हर महीना
एक कटा रह गए थे ग्यारह
कुछ एहसासों से थे बाहर
दूसरा कटा रह गाएं थे दस
फिर भी नहीं हो रहा था बस
फिर गए बीत दिन थे इकत्तीस
रह गए थे अब नौ सिर्फ
बीत जाते दिन कट जाते पन्ने
अब क्यो नहीं रुक जाते पन्ने
फिर गए दिन फिर से तीस
अब रह गए सिर्फ आठ
पढ़ाते हमें जीवन के पाठ
चल पड़ी समय की नैया
बीत गए फिर से दिन तीस
रह गए पन्ने फिर सात
देते गए समय को मात
ओर दिन बीते फिर से तीस
रह गए पन्ने फिर से छः
समय की सीमा गई ढह
बीते दिन फिर से तीस
रह गए थे अब पन्ने चार
पूरे होने में रह गई न राह
मत पूछो अब मेरे भाई
बीते फिर से दिन गए तीस
रह गए अब पन्ने सिर्फ तीन
फिर बह गए थे दिन तीस
पन्ने रह गए थे सिर्फ दो
पतला हो गया बिलकुल कैलेंडर
लगे महीने जैसे डूबे बीच समुंदर
फिर बीत गए दिन तीस
रह गया पन्ना सिर्फ एक
फटा नहीं वह पन्ना
 पूरा केलेंडर दिया फेंक
अब बहुत हुआ है भाई
नया कैलेंडर लाओ भाई
— जयश्री बिरमी 

जयश्री बिर्मी

अहमदाबाद से, निवृत्त उच्च माध्यमिक शिक्षिका। कुछ महीनों से लेखन कार्य शुरू किया हैं।फूड एंड न्यूट्रीशन के बारे में लिखने में ज्यादा महारत है।