सामाजिक

क्यूँ न परंपरा को बदल दें

इंसान की मानसिकता बड़ी कम्माल होती है, कभी अपने भीतर झांकने की तस्दी तक नहीं लेते। खुद के भीतर असंख्य कमियों का दरिया भले बहता हो पर सामने वाले की सोच में, समाज की हर रिवायतों में और पूरी दुनिया की हर एक चीज़ में बदलाव की उम्मीद जरूर रखते है। कभी अपने दोषों का अवलोकन करना उचित नहीं समझते, रिश्तेदारों और दोस्तों की हर गतिविधियों की समीक्षा करने निकल पड़ते है।
कमी और खूबी हर इंसान की प्रकृति का हिस्सा है, हर चीज़ के दो पहलू होते है सही और गलत। पर इंसान की फ़ितरत है सही का मुआयना करने कभी नहीं बैठेंगे, हल्की सी गलती को पहाड़ का रुप देकर पेश करने में माहिर होते है। एक बेटी का बाप सालों से अपनी बेटी की शादी के लिए पसीना बहाते पाई-पाई जोड़ रहा होता है। बेटी की शादी के वक्त कितना डरा हुआ होता है कि कहीं कोई कमी न रह जाए। लोग आते है दो तीन दिन ऐशो आराम से खाते है, पीते है, मौज करते है और आख़िर में सौ नुक्श निकालने के बाद ही चैन पाते है। चार अच्छी चीज़ों की तारीफ़ में मुँह कभी नहीं खुलेगा। ये क्या लगा दिया? इससे तो बेहतर हमारी चिंकी की शादी का डेकोरेशन शानदार था। मटर पनीर में पनीर थोड़ा कम था, खाने के बाद पान होते तो अच्छा रहता लो कर दी ना बेइज्जती पसीने की कमाई की। अरे भै अपने बच्चों की शादियों को धूमधाम से करने में एक इंसान की बरसों की मेहनत की कमाई लगी हुई होती है। हर कोई अपनी हैसियत के मुताबिक अच्छा करने की कोशिश करता है तो किसीसे किसीकी तुलना ही गैरवाजिब है। सबकी हैसियत, सबकी पसंद एक सी नहीं होती। और अगर ऐसे लोगों को खुद की कमियाँ किसीने बता दी तो दिमाग का पारा सातवें आसमान पर चढ़ जाता है; अपने आप को सर्वगुण संपन्न समझते सामने दस बातें सुनाकर रिश्ता तक ख़त्म कर लेते है।
ऐसे लोगों की चार दिनों की ख़ातिरदारी में पैसे बर्बाद करने से बेहतर है बेटी के नाम से बैंक में बचत खाता खुलवा लें। कम से कम पैसों के लिए बेटी को किसीका मोहताज नहीं रहना पड़ेगा। शादियों में दावत जैसी पैसों की बर्बादी करने वाली परंपरा को तिलांजली दे देनी चाहिए। दो परिवारों के लोगों की हाज़री में शादी संपन्न करवा कर फ़िज़ूल खर्चों पर रोक लगानी चाहिए।
आख़िर क्यूँ हमें खुद की कमियों का इल्म तक नहीं होता, क्यूँ बदलाव हंमेशा सामने वालों के व्यवहार में ही चाहते है? दुनिया की किसी भी चीज़ में परिवर्तन या बदलाव चाहते है तो शुरुआत खुद के स्वभाव से क्यूँ नहीं करते? अगर खुद का नज़रिया, खुद के विचार और खुद की प्रकृति में सुधार लाएंगे तभी संभव है दुनिया की हर शै में छुपी अच्छाई दिखें। अच्छा देखने, अच्छाई ढूँढने और अच्छाई को समझने के लिए एक सुंदर मन और सालस स्वभाव चाहिए। अगर हमारे भीतर ही स्वच्छता भरी होगी तब सबकुछ साफ़ दिखाई देगा। तो क्यूँ न एक कोशिश करें, जो बदलाव हम समाज में चाहते है उसकी शुरुआत खुद से ही करें। पहले खुद बदले बाद में किसीकी कमियां ढूँढें। जो कि अपनी कमियां स्वीकार करना इंसान ज़ात के लिए बहुत मुश्किल है पर नामुमकिन भी नहीं।
— भावना ठाकर ‘भावु’

*भावना ठाकर

बेंगलोर